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________________ 114 नैषधमहाकाव्यम् / चेतोजन्मशरप्रसूनमधुभिर्व्यामिश्रितामाश्रयत् प्रेयोदूतपतङ्गपुङ्गवगवीहैयङ्गवीनं रसात् / स्वादं स्वादमसीममृष्टसुरभि प्राप्ताऽपि तृप्ति न सा ____ तापं प्राप नितान्तमन्तरतुलामानछे मूर्छामपि / / 130 // चेत इति / सा भैमी चेतोजन्मनः कामस्य शरप्रसूनानां शरभूतपुष्पाणां मधु. भिस्तद्रसः चौख 'मधु मद्ये पुष्परसे चौद्र' इत्यमरः / ग्यामिश्रतामाश्रयत् तथा मिश्र सदित्यर्थः / असीमं निःसीमम् अपरिमितमित्यर्थः। नकारान्तोत्तरपदो बहु. बीहिः / मष्टं शुद्धम् / अन्पनामलं तर तत सुरभि सुगन्धि च, खाकुब्जवद्विशेषणसमासः / प्रेयसो नलस्य दूतः सन्देशहरो यः पतनः पुनव इव पतनपुयो हंसा श्रेष्ठः पुमान् गौः पुङ्गवः / 'गोरतद्धितलुकी'ति टच , तस्य गोर्वाक तद्वी पूर्ववत् उचि 'टिडढाणमित्यादिना डीप / सैव हैयंगवीनं योगोदोहोद्भवं घृतमिति रूप. कम् / 'हैयनवीनं संज्ञायामिति निपातः / तदवी तदेनुः तस्या इति च गम्यते रसादागात् स्वादं स्वादं पुनरास्वाथ भाभीचण्ये णमुलप्रत्ययः / पौनःपुन्यमाभीषण्यम् 'भाभीषण्ये द्वे भवत' इति उपसंख्यानात् द्विरुतिः / तृप्ति प्राप्तापि अपि. विरोधे अन्तः नितान्तं तापं न प्राप अतुलां मूर्छामपि नानपर्छ न प्राप, 'ऋच्छ. स्यतामिति गुणः / 'मत आदेरि त्यभ्यासाकारस्य वीर्घः / 'तस्मान्नुड् द्विहल' इति नुट / मधुमिश्रघृतस्य विश्वात्तस्पाने तापाभावादिति विरोधः / स च पूर्वोक्तपतङ्ग. पुंगवगवीहैयनवीन इति रूपकोत्थापित इति सङ्करः / 'मधुनो विषरूपत्वं तश्यांशे मधुसपिषी' इति वाग्भटः // 120 // कामबाणरूप पुष्पके मधु ( पराग, पक्षा०-शहद ) से मिश्रित तथा इष्ट एवं सुगन्धयुक्त प्रियतम ( नल) के दूत पक्षिमेष्ठ (राजहंस) को वाणीरूपी ( पक्षा० -..." की गायके) मक्खन ( नेनू घी ) को अपरिमित बार-बार स्वाद लेकर ( खाकर, पक्षा०-हंसके वचन को बादरपूर्वक सुनकर ) भी वह दमयन्ती तृप्त हो गया और अन्तः अधिक सन्तापको नहीं पाया, तथा अपरिमित मूछाको भी नहीं पाया ( अथवा-... ..वह दमयन्ती तृप्त नहीं हुई; उसका अन्तःकरण अधिक सन्तापको पाया तथा अपरिमित मूर्छाको पाया) [घी तथा मधु समान मात्रा में मिलाकर अधिक खाने से भी तृप्त नहीं होती और भी खाने की इच्छा बनी रहती है, परन्तु उसे खाने से अन्तःकरणमें दाह होता है तथा मू. मी भाती है। वे सब दमयन्तीको नहीं हुए यह आश्चर्य हैं। अथवा दितीय अर्थके पक्षमें हंसके वचनको दमयन्ती और भी सुनना चाहती थी, अतएव उसकी तृप्ति नहीं हुई तथा उसके चले जानेसे दमयन्तीके अन्तःकरणमें सन्ताप भी हुमा तथा वह मोइयुक्त भी हुई यह उचित ही है / 'असीमम् + मृष्टमुरमि' पदच्छेद का अर्थ ऊपर लिखा गया है, 'मसीममृष्टसुरमि' समस्त एक पद की 'हैयङ्गवीनम्' का विशेषण मानकर अपरिमित
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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