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________________ तृतीयः सर्गः 165 मधुर तथा सुगन्ध युक्त' उक्त रूप धोको बार-बार खाकर मी..... ...." ऐसा मयं मी हो सकता है ] // 130 // तस्या शो वियति' बन्धुमनुव्रजन्त्यास्तद्वाष्पवारि न चिरादवधिर्बभूव | पार्वेऽपि विप्रचकृषे तदनेन दृष्टेरारादपि व्यवदधे न तु चित्तवृत्तेः // 131 / / तस्या इति / वियत्याकाशे बन्धुमनुव्रजन्स्यास्तस्था शो भैमीहष्टेः तद्वापवारि बन्धुजनविप्रयोगजन्यं तदरजलं न चिराचिरादवधिर्बभूव, 'पोदकान्तं प्रियं पान्थमनुबजेदिति शास्त्रात्तदा सीमाभूदित्यर्थः। ततः तस्माद् बाष्पोपगमादेव हेतोरनेन हंसेन हष्टेः पाश्वे समीपे विप्रचकृषे विप्रकृष्टेनाभावि / बाप्पावरणात् समीपस्थोऽपि नालभ्यतेत्यर्थः। वित्तवृत्तेस्तु आराद् दूरेऽपि न व्यवदधे ग्यवहितेन नाभावि, स्नेहबन्धान्मनसो नापेत इत्यर्थः / उभयत्रापि भावे लिट् / समीपस्यस्य विप्रकृष्टत्वं दूरस्थस्य सनिकृष्टत्वं चेति विरोधाभासः // 31 // नेत्रअल (प्रियदूत हंसके विरहसे उत्पन्न आँस ) जो आकाशमें जाते हुए बन्धु (रूप राजहंस ) का अनुगमन करती हुई उस ( दमयन्ती ) की दृष्टिके शीघ्रही अववि हो गया, भत एव समीप होने पर भी इस हंससे वह 'दूर हो गयी, किन्तु दूर चले जाने पर भी वह हंस दमयन्तीकी चित्तवृत्तिसे दूर नहीं हुआ। [बाहर जाते हुए बन्धका तडाग, वाटिका, नगरसीमा आदि तक अनुगमन करनेका नियम है, अतः जब प्रियावेदक होनेसे बान्धव. रूप इस नलकी राजधानीको जाने लगा तब शीघ्र ही दमयन्तीके नेत्र उसके विरह दुःखसे अश्रुयुक्त हो गये, अत एव नेत्राश्रु ही इसका अनुगमन करनेवाले दमयन्ती-नेत्रको भागे बढ़ने से रोकने के लिए जलाशयरूप गमनावधि हो गये, इसी कारण इसके थोड़ी दूर ही बानेपर भी वे ( नेत्र ) उससे दूर हो गये; किन्तु दमयन्तीने उस इंसको अन्तःकरणमें रख लिया था, अत एव हंस बहुत दूर तक जानेपर भी उसके अन्तःकरणसे दूर नहीं हुआ, उसके अन्तःकरणमें ही रहा / पाठा-नृपति ( राजा नल ) के बन्धु-राजहंसका अनु. गमन.... अर्थ करना चाहिये] // 131 // अस्तित्वं कार्यसिद्धः स्फुटमथ कथयन् पक्षयोः कम्पभेदै राख्यातुं वृत्तमेतन्निषधनरपतौ सर्वमेकः प्रतस्थे / कान्तारे निर्गतासि प्रियसखि ! पदवी विस्मृता किन्नु मुग्धे ? मा रोदीरेहि यामेत्युपहृतवचसो निन्यरन्यां वयस्याः // 132 / / अस्तित्वमिति / अथ एकः अनयोरेकतरो इंसः पक्षयोः कम्पभेदैश्चैष्टाविशेषः कार्यसिद्धरस्तिस्वं सत्ताम् 'अस्तीत्यव्ययं विद्यमानपर्यायस्तस्माश्वप्रत्ययः / स्फुटं 1. 'दृशाऽधिपतिबन्धु-इति पाठान्तरम्। 2. 'नृपतिबन्धु-' इति पाठान्तरम् /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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