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________________ षष्ठः सर्गः / ईषस्मितक्षालितविभागा एक्संझया वारिततत्सदालिः / साजा नमस्कृत्य तयैव शकं तां भीमभूरुत्तरयांचकार // 10 // ईदिति // भीमाभैमी, ईषरिस्मतेन सन्दहासेन ज्ञालितो धौती सृक्विणी औष्ठप्रान्तावेव भागौ यया सा सती / प्रान्तावोष्ठस्य सृक्विणी' इत्यमरः / रक्संज्ञयैव वारिता निषिद्धास्तास्ताः पूर्वोक्तविरुद्धप्रलापिन्यः आलयः सण्यः, यया साप सती / तयेन्द्रदूतीदत्तया सजा सहैव / 'वृद्धो यूना' इति सूत्रकारप्रयोगादेव ज्ञाप. कात् सहशब्दाप्रयोगेऽपि सहार्थे तृतीया / शक्रं नमस्कृत्य, स्त्रजं शक्रश्च नमस्कृत्ये. त्यर्थः। न तु तामवतंसीकृत्य / तस्य नलस्य जीवनार्थमिति भावः / तामिन्द्रदूनीमु. तरयाश्चकार उत्तरमाचष्ट / 'तस्करोति तदाचष्टे' इति णिच // 90 // थोडे मस्करानेसे ओष्ठप्रान्तको श्वेत करनेवाली तथा नेत्रसङ्केतसे उन-उन सखियों को (जिन्होंने इन्द्रको वरण करने की सम्भति दी थी मना करती हुई उस दमयन्तीने उस(इन्द्रकी भेजी हुई पारिजात) मालाके साथ ही इन्द्रको प्रणाम कर दूतीको उत्तर दिया / अथवाइन्द्रको प्रणाम कर उस मालासे ही दूतीको उत्तर युक्त कर दिया अर्थात् इन्द्रने यह माला मुझे भक्त जानकर प्रसादरूप में भेजी है, न कि प्रेयसी जानकर पुष्पाभरणरूपमें, क्योंकि यदि दमयन्ती उस मालाको प्रिय इन्द्रद्वारा भेजा गया पुष्पाभरणोपहार समझती तो उसका भक्तिपूर्वक प्रगाम नहीं करती, अपितु हृदयसे लगाकर चुम्बनादिद्वारा इन्द्र में प्रेम प्रदर्शित करती। इसीसे दृतीके वचनका उत्तर दमयन्तीने दे दिया। जैसे कोई व्यक्ति किसीकी बातको स्वीकार नहीं करता तो उस बातको सुनकर थोड़ा-सा मुस्कुरा कर ही और समर्थक अपने बन्धुजनोंको संकेतसे ही रोककर उसके वातका उत्तर दे देता है, इन्द्रदूतीकी बातोका समर्थन करनेवाली सखियोको आँखके इशारेसे रोककर तथा दूतीकी ओर मुस्कुराकर तथा मालाको प्रणाम कर दमयन्ताने भी दूतीकी वातको स्वीकृत नहीं करनेका संकेत कर दिया ] / / 90 // स्तुतौ मघोनस्त्यज साहसिक्यं वक्तुं कियत्तं यदि वेद वेदः / वृथोनरं' साििण हृत्सु नृणामज्ञातृविनापि ममापि तस्मिन् // 91 / / स्तुताविति // हे दूति, मशन इन्द्रस्य स्तुतौ विषये साहसिक्यं साहसमविमृ. श्यकारित्वं त्यज, न स्तुहीत्यर्थः / कुतः अशक्यत्वादित्याह / तं शक्र कियदल्पं वक्तुं वेदयतीति वेदः, अतिरेव वेद वेसि, नान्यः / अतः स्तुतेविरमेति भावः / तर्हि किमस्योत्तरं तत्राह-नृणां हृत्सु विषये साक्षिणि साक्षिभूते 'साक्षात् द्रष्टरि संज्ञायाम्' इति इनिप्रत्ययः। तस्मिन्मघोनि अज्ञातनज्ञान् विज्ञपयति विबोधयतीति तथो. कम् / ममसम्बन्ध्युत्तरमपि वृथा। अज्ञस्योत्तराकांक्षा न सर्वज्ञस्येति भावः // 99 // (दूती ! ) इन्द्रकी प्रशंसा करनेका साहस छोड़ो, यदि उनको कुछ ( असम्पूर्णतया) जानता है तो वेद जानता है (इन्द्रकी महिमाको वेद भी सम्पूर्णतया नहीं जानता 1. 'मृषोत्तमम्' इति पाठान्तरम् /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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