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________________ .. एकादशः सर्गः। 661 दिविषदद्रमस्य कल्पवृक्षस्य, पल्लवानि, आस्येन इन्दुमपि, एवं नीरधिमन्थनोत्थं समुदमन्थनोद्भूतं, समुद्रमथनोत्थानि सर्वाण्येतानि वस्तूनि इत्यर्थः, 'नपुंसकमनपुंसकेनैकवचास्यान्यतरस्याम्' इति नपुंसकत्वं वैकल्पिकमेकत्वञ्च स्वच्छन्दं निरवग्रह, यथेष्टमित्यर्थः, 'स्वच्छन्दो निरवग्रहः' इत्यमरः, स्मरतु / अत्र कविसम्मतसा. दृश्यमूलस्मृतिनिबन्धनात् स्मरणालङ्कारः // 63 // हे सुन्दरि ( दमयन्ति ) ! वह मन्दराचल तुम्हारे इस स्तनद्वयसे ऐरावतके कुम्मद्वय (मस्कस्थित कुम्भाकार दो मांसपिण्ड-विशेष ) को भुजद्वयसे कल्पवृक्षके पल्लवको और मुखसे समुद्रमथनसे निकले हुए चन्द्रमाको अच्छी तरह स्मरण करे। [ समुद्रमथनके समय ऐरावत, कल्पवृक्ष तथा चन्द्रमा निकले हैं, उनको प्रत्यक्ष देखनेवाले मन्दराचलको तुम्हारे स्तनद्वय, पाणिद्वय तथा मुखको देखकर ऐरावत, कल्पवृक्ष तथा चन्द्रमा स्मरण अवश्य हो जायेगा; क्योंकि तुम्हारे स्तनद्वय ऐरावतके कुम्भद्वयके समान, भुजद्वय कल्पवृक्षके पल्लवके समान तथा मुख चन्द्रके समान हैं। अतः सदृश वस्तुओंके देखनेसे पूर्वदृष्ट वस्तुका स्मरण होना सहज है ] // 63 // वेदैर्वचोभिरखिलैः कृतकीर्तिरत्ने हेतुं विनैव धृतनित्यपरार्थयत्ने / मीमांसयेव भगवत्यमृतांशुमौलो तस्मिन् महीभुजि तयाऽनुमतिने भजे // वदरिति / अखिलैः समस्तः, अन्यत्र-अखिले: अविच्छिन्नसम्प्रदायः, वः वेदतुल्यः, वचोभिः सत्पुरुषवाक्यः, अन्यत्र-'यतो वा' इति वेदवाक्यः, कृतं प्रका. शितम्, अन्यत्र-प्रतिपादितं, कीर्तिरत्नम् अमूल्यरत्नरूपं यशः, अन्यत्र-स्तुति. रूपरत्नं यस्य तस्मिन् , हेतुं विनैव स्वोपकारमनपेच्येव, धृतःनित्यं सदा, परार्थयत्नः स्वयमवाप्तसकलकामत्वेन परार्थंकप्रवृत्तिः येन तादृशे, तस्मिन् ज्योतिष्मन्नाग्नि, महाभुजि तया भैम्या, भगवति अमृतांशुमौलो ईश्वरे मीमांसया पूर्वमीमांसयव, अनुमातः अङ्गाकारः, न भेजे न प्राप्तः, भजेः कर्मणि लिट् , वेदापौरुषेयवादिना मीमांसा भगवन्तमीश्वरं न सहते। ईश्वरबोधकवेदवाक्यानाञ्च नेश्वरप्रामाण्यतात्प. यकत्वं परन्तु अन्यवाक्येकवाक्यतया अन्यत्र तात्पर्यकत्वं, 'यत्परः शब्दः सः शब्दाथः, इत्याशयः / पूर्णोपमा // 64 // - सब लोगोंके द्वारा वेदतुल्य सत्य वचनोंसे विस्तारित कीर्तिरूपी रत्नवाले तथा निष्कारण दूसरेके लिए उद्योग करनेवाले उस 'ज्योतिष्मान्' नामक राजाको उस दमयन्तीने उस प्रकार स्वीकार नहीं किया, जिस प्रकार समस्त वेदवचनोंसे किये गये कौर्तिरत्नवाले तथा (स्वयं नित्य पूर्ण समस्त कामनावाले होनेसे) परोपकारके लिए कार्य करनेवाले अर्थात् परमदयालु भगवान् चन्द्रमौलि ( शङ्करजी) को पूर्वमीमांसा नहीं स्वीकार करती है [ पूर्वमामांसा वेदको अपौरुषेय ( ईश्वरकृत ) मानती हे परन्तु अन्य किसी देवको नहीं मानती / दमयन्तीने उस 'ज्योतिष्मान्' राजाको वरण नहीं किया ] // 64 / /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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