________________ नवमः सर्गः। 511 यम सर्वदा उन ( धर्मराज ) की दिशामें रहनेवाला तथा कर (राज-भाग ) देनेके लिये आये हुए अगस्त्य मुनिसे बलपूर्वक भी तुमको वर मांग लेंगे ( अथवा-बलपूर्वक स्वयं धर्मराजके पास कर देनेके लिए आये हुए अगस्त्य मुनिसे तुमको वर मांग लेंगे) तो क्या गति होगी ? कहो। [ अगस्त्य मुनि सर्वदा धर्मराजकी दिशा दक्षिगमें रहनेसे उनके प्रजारूप हैं, अतएव वे कर देने के लिए धर्मराजके पास आयेंगे तो धर्मराज तुम्हें पानेका ही वरदान कररूपमें अगस्त्य मुनिसे बलपूर्वक ( राजाका बलपूर्वक प्रजासे कर लेना अनुचित नहीं है ) भी मांगेंगे तो तुम्हें यमराजके लिये अगस्त्यजी अवश्य ही दे देंगे, इस प्रकार तुम धर्मराजके हाथसे किसी तरह नहीं बच सकती, अतः तुम धर्मराजको स्वयं स्वीकार कर लो। 'धर्मराज' शब्द के प्रयोगसे उनका वह कार्य धर्म विपरीत नहीं हो वह भी ध्वनित होता है ] 76 // क्रतोः कृते जाप्रति वेत्ति कः कति प्रभोरपां वेश्मनि कामधेनवः / / त्वदर्थमेकामपि याचते स चेत् प्रचेतसः पाणिगतैव वर्तसे // 77 ||77 // ___ क्रतोरिति / किञ्च क्रतोः कृते क्रत्वर्थमपां प्रभोः वरुणस्य वेश्मनि कति कामधे. नवो जाग्रति वर्तन्ते को वेत्ति ? असङ्ख्याकाः सन्तीत्यर्थः। स वरुणस्त्वदर्थ त्वसि. घ्यर्थ तत्रकामपि गां याचते चेत् , दमयन्ती देहीति प्रार्थयते चेत् तर्हि प्रचेतसो वरुणस्य पाणिगतैव वर्तसे / तदा कस्त्वां मोचयिष्यतीति भावः // 77 // ___ यज्ञ के लिये वरुण के घर में कितनी कामधेनु हैं यह कौन जनता है ? अर्थात् वहुत-सी है, ( अतः ) वह वरुण तुम्हारी याचना यदि एक ( कामधेनु ) से भी करेंगे तो तुम प्रचेता ( वरुण, पक्षी०-उत्कृष्ट चित्तवाले ) के हाथ में ही हो। [जिस किसी अपरचित व्यक्तिकी भी याचना को एक भी कामधेनु पूरी कर देती है, तो जिस वरुणके घर में ही सर्वदा अनेक कामधेनु हैं, उनमें से एक कोई भी स्वामी वरुणके याचना करनेवर तुम्हें उनके लिए दे देगी, अतएव तुम स्वयं ही वरुणको पहलेसे हो प्रसन्नतापूर्वक वरण कर लो। न सन्निधात्री यदि विघ्नसिद्धये पतिव्रता पत्युरनिच्छया शची / स एव राजव्रजवैशसात् कुतः परस्परस्पर्धिवरः स्वयंवरः / / 78 // नेति। किञ्च पतिव्रता शची पत्युरिन्द्रस्यानिच्छया असम्मत्या कारणेन विघ्नसिद्धये स्वयंवरविघातार्थं सन्निहिता न यदि न स्यात् चेत् / विशसति हिनस्तीति विशसो हिंसकः, पचाद्यच। तस्य कर्म वैशसं, युवादित्वादंग प्रत्ययः / राजवजस्य राजन्यकस्य वैशसान्मिथो विरोधाद्धेतोः परस्परस्पर्धिनोऽन्योन्यसङ्घर्पिण वरा वोढा. रो यस्मिन् स तथोक्तः स्वयंवर एव कुनः कुतस्तरां नलवरणमिति भावः / स्वयंवरे शचीसन्निधानादविघ्नसिद्धिरिति शास्त्रम् / तथा च रघुवंशे-'सान्निध्ययोगात् किल तत्र शच्याः स्वयंवरक्षोभकृतामभावः' इति // 78 //