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________________ नैषधमहाकाव्यम् / नहीं किन्तु विशेष रूपसे ) जलाता हुआ वैरका बदला चुकानेसे अग्निकी अपेक्षा कामदेवका अधिक पुरुषार्थ प्रकट होता है / लोकमें भी ऋण लिया हुआ व्यक्ति मूल धनसे सूदके साथ अधिक धन देकर ऋणसे मुक्त हो जाता है / तथा जो किसी की थोड़ी हानि करता है वह व्यक्ति हानि करनेवाले व्यक्तिकी अत्यधिक हानिकर अपने वैरका बदला चुका लेता है / कामोद्दीपक तुम्हारे नेत्रों को देखकर अग्नि तुम्हारे विरहसे अत्यन्त सन्तप्त हो रहे हैं ] // 73 // सोमाय कुप्यमिव विप्रयुक्तः स सोममाचामति हूयमानम् / नामापि जागति हि यत्र शत्रोस्तेजस्विनस्तं कतमे सहन्ते / / 74 सोमायेति / विप्रयुक्तस्त्वद्वियुक्तोऽग्निः सोमाय चन्द्राय कुप्यन्निब जिघांसन्नि. वेत्यर्थः / "क्रुधदुह" इत्यादिना सम्प्रदानत्वाच्चतुर्थी / हूयमानं यज्ञे दीयमानं सोमं सोमरसमाचामति पिबति / तथा हि यत्र पुरुषे शत्रोर्नामापि जागर्ति प्रकाशते तं शत्रुनामधारिणं तेजस्विनः परावमानासहिष्णवः, 'अधिक्षपाद्यसहनं तेजः प्राणात्यये प्वपि'इति लक्षणात् / कतमे सहन्ते न केऽपीत्यर्थः। तेजस्विनां शत्रनामाप्य. सह्यमिति भावः / सामान्येन विशेषसमर्थनरूपार्थान्तरन्यासः // 74 // विप्रयुक्त (विरहयुक्त, पक्षा०-ब्राह्मण से युक्त) वह (अग्नि) सोम (चन्द्रमा ) पर कोप करते हुएके समान, (यशोंमें) हवन किये जाते हुए सोम (सोमलता) को भक्षण करते हैं अर्थात् उसे नष्ट करते हैं / [ चन्द्रमापर क्रोधकर सोमलताको नष्ट करनेसे क्या लाम है ? यह शङ्का नहीं करनी चाहिये; क्योंकि ) जहां (जिस पुरुषमें ) शत्रुका नाम भी रहता है, उसको कौन तेजस्वी सहते हैं ? अर्थात् कोई भी तेजस्वी नहीं सहते / (तेजस्वियोंको शत्रुका नाम भी असह्य होता है अतः विरहमें अग्नि को पीड़ित करनेसे शत्रुभूत सोम अर्थात् चन्द्रमाके नामको सोम अर्थात् सोमलतामें देखकर यज्ञोंमें हवन की गयी सोमलता का अग्नि आचमन कर जाते हैं अर्थात् आचमन करनेके समान अत्यन्त सरलतासे नष्ट कर ( जला) देते हैं / चन्द्रमा भी अग्निको तुम्हारे विरहमें अत्यन्त पीड़ित कर रहा है ] / / 74 / / शरैरजनं कुसुमायुधस्य कदीमानस्तव कारणाय | अभ्यर्चयद्भिर्विनिवेद्यमानादप्येष मन्ये कुसुमाद्विभेति / / 75 / / शरैरिति / हे तरुणि ! तव कारणाय त्वदर्थे त्वत्कृते, तादयें चतुर्थी / कुसुमायुधस्य शरैः कुसुमबाणैरजस्रं कदर्यमानः पीड्यमान एषोऽग्निः अभ्यर्चयनिः पूज यद्भिविनिवेद्यमानात्समप्यमाणादपि कुसुमाद बिभेति मन्ये / उप्रेक्षा // 75 // तुम्हारे कारण ( पाठा०-हे तरुणि ! तुम्हारे लिए ) पुष्पबाण (कामदेव ) के बागों (पुष्पों ) से अत्यन्त पीड्यमान यह ( अग्नि, पाठा०-यह देव अर्थात् अग्नि ) पूजा करने वालों के द्वारा चढ़ाये गये (एक) पुष्प से भी डरता है / ऐसा मैं मानता हूं / [ पुष्पायुध काम 1. "तरुणि त्वदर्थे" इति पाठान्तरम् / 2. "एष देवः" इति पाठान्तरम् /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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