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________________ अष्टमः सर्गः। 440 दमयन्तीका दास बनो' इस आशाका पालन करनेको तैयार हो रहा है। अग्नि मी तुम्हारा पति होकर दास बनने की इच्छा कर रहे हैं ] // 71 // त्वद्गोचरस्तं खलु पञ्चषाणः करोति सन्ताप्य तथा विनीतम् / स्वयं यथास्वादिततप्तभूयः परं न सन्तापयिता स भूयः / / 72 / / स्वदिति / पञ्चबाणः कामस्वद्गोचरस्त्वामेव लक्षीकृत्य इत्यर्थः। तमग्निं सन्ताप्य तथा तेन प्रकारेण विनीतं शिक्षितं करोति खलु / यथा येन प्रकारेण स्वयं स्वादित. मनुभूतं तप्तभूयं तप्तत्वं येन स सन् / “भुवो भावे" इति भावे क्यप। भूयः पुनः परमन्यं सन्तापयिता न सन्तापयिष्यति स्वयमनुभूतदुःखः स्वारमदृष्टान्तेन परं तथा न दुःखाकरोतीति भावः // 72 // कामदेव तुम्हें लक्ष्यकर उस अग्निको. सन्तप्तकर इतना अधिक विनीत कर रहा है कि सन्ताप-दुःखका स्वयं अनुभव किए हुए वे अग्नि फिर किसीको सन्तप्त नहीं करेंगे। [ अब तक अग्निको यह अनुभव नहीं था कि सन्तापसे कितनी अधिक पीड़ा होती है, अतः वे दूसरों को सन्तप्त किया करते थे, किन्तु अब तुम्हारे विरहमें कामदेवके द्वारा स्वयं सन्तापजन्य दुःखका अनुभव कर लेने पर वे इस बातको समझ जायेंगे कि सन्तापसे बहुत अधिक पीडा होती है, और भविष्यमें अपना दृष्टान्त रखकर दूसरे किसीको सन्तप्त नहीं किया करेंगे / लोकमें भी जब तक स्वयं दुख पाया हुआ व्यक्ति अपने अनुभूत दुःखके समान ही दूसरोंके दुःखको समझकर किसी को नहीं सताता है / तुम्हारे विरह में अग्नि कामपीडा से अत्यधिक सन्तप्त हो रहे हैं ] // 72 // अदाहि यस्तेन दशार्धषाणः पुरा पुरारेनयनालयेन / स निर्दहस्तं भवदक्षिवासी न वैरशुद्धरधुनाघमणः / / 3 // अदाहीति / यो दशार्धबाणः पन्चेषुः पुरा पुरारेनयनालयेन नयनाश्रयेण नेत्रा. ग्निना अदाहि दग्धः स पन्चेषुरधुना भवदनिवासी त्वन्नेत्रनिष्ठः सन् तमग्नि निर्दहन् वैरशुद्धेवैरनिर्यातनादधमणः ऋणी न अनृणोऽभूदित्यर्थः / यो यथा यस्यापकरोति स तस्य तथैव प्रतिकृत्य निर्वैरो भवतीति भावः // 73 // पहले शिवजीके जिस नेत्रस्थित अग्निने कामदेवको जलाया था, इस समय तुम्हारे नेत्रमें स्थित वही कामदेव उस (अग्नि) को अत्यन्त जलाता (तुम्हारे बिरहसे सन्तप्त करता) हुआ वैरका बदला लेनेसे ( उस अग्निका) ऋणी नहीं है [ पहल कामदेवको शिवजीके नेत्रमें स्थित अग्निने जलाया था, अब वही कामदेव तुम्हारे नेत्रमें रहता अर्थात् कटाक्षद्वारा अग्निको अत्यन्त सन्तप्त करता हुआ पुराने वैर का बदला चुका दिया है / जिस अग्निने पहले रुद्र ( शिव ) रूप पुरुषके नेत्रका आश्रय कर कामदेवको सामान्य रूपसे ही जलाया, इसकी अपेक्षा स्त्रीरूप तुम्हारे नेत्रमें स्थित कामदेव उस अग्नि को अत्यन्त (सामान्यरूपसे
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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