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________________ 486 नैषधमहाकाव्यम् / अपि स्वमस्वप्नमसूषुपन्नमी परस्य दाराननवैतुमेव माम् / स्वयं दुरध्वाणवनाविकाः कथ स्पृशन्तु विज्ञाय हृदापि ताहशीम् / / अपीति / अमी इन्द्रादयः देवाः अस्वप्नं स्वप्नवर्जितं स्वमात्मानं मां परस्य दाराननवैतुमज्ञातुमेव असूषुपन् स्वापितवन्तः / स्वापेरें चङि "युतिस्वाप्यो"रिति सम्प्रसारणम् / अन्यथा सर्वज्ञानां तेषामस्मिन्नेवांशे कथमज्ञानमित्यर्थः / तदेवोपपादयति-स्वयं दुष्टोऽध्वा दुरध्वः, “उपसर्गादध्वन" इति समासान्तोऽच ।स एवार्णवस्तस्य नावा तरन्तीति नाविकाः कर्णधाराः सन्तः “नौ द्वयचष्ठन्" इति ठन्प्रत्ययः / कथं तादृशीं मां हृदा विज्ञायापि स्पृशन्तु स्पृशेयुः। स्वयममार्गनिवारकाणां तत्पवृत्तिरनहेति भावः // 33 // ये ( इन्द्रादि देव ) मुझे परस्त्री ( दूसरेकी अर्थात् नलकी स्त्री ) नहीं समझनेके लिये ही अस्वप्न अर्थात् नहीं सोनेवाले ( देवोंको नहीं नींद आना पुराणादिमें प्रसिद्ध है) अपनेको सुला दिया क्या ? ( क्योंकि यदि ऐसा नहीं होता तो) कुमार्गरूपी समुद्रके कर्णधार ( समुद्रमें यात्रा करनेवालोंको सुरक्षित पार करनेवाले नाविकके समान कुमार्गमें प्रवृत्त मनुष्यको रोककर सन्मार्गमें प्रवृत्त करनेवाले वे इन्द्राद दिक्पाल ) हृदयसे वैसी (परस्त्री ) जानकर भी ( अथवा-परस्त्री जानकर भी हृदयसे ) कैसे स्पर्श करते ? कुमार्गसे बचानेवाले वे देव हृदयसे मुझे परस्त्री जानकर भी हृदयसे दूषित करना चाहते हैं, अतः मालूम पड़ता है कि सर्वदा जागरूक रहनेवाले वे इन्द्रादि देव 'यह दमयन्ती दूसरेकी स्त्री है' इस बातको नहीं जाननेके लिए मानो सो गये थे, और सोये हुए. पुरुपद्वारा किया गया कार्य अबुद्धिपूर्वक होता है उसपर कोई बुद्धिमान् व्यक्ति विचार भी नहीं करना चाहता, अतएव अबुद्धिपूर्वक किये गये इन्द्रादिके कार्यपर विचार करना मूर्खता है / / अनुप्रहः केवल एष मादृशे मनुष्यजन्मन्यपि यन्मनो जने / स चेद्विधेयस्तदमी तमेव मे प्रसद्य भिक्षां वितरीतुमीशताम् // 34 // अनुग्रह इति / मनुष्येषु जन्म यस्य तस्मिन्नपि माहशे जने यन्मनश्चित्तं वर्तते एष केवलोऽनुग्रह एव किन्तु सोऽनुग्रहो विधेयः कर्तव्यश्चेत्तत्तर्हि अमी इन्द्रादयो देवाः प्रसन्ना भूत्वा मे मह्यं तं नलमेव मिक्षां वितरीतुं दातुम्, "ऋतो वा" इति दीर्घः / ईशतामीश्वरा एव भवन्तु / नलसङ्घटनेनैवानुग्राह्योऽयं जनो नान्यथा मन्तव्य इति भावः // 34 // ___ मनुष्यसे उत्पन्न मेरे जैसे ( सामान्य ) व्यक्तिमें जो ( इन्द्रादि दिक्पालोंका ) मन ( अनुरक्त ) है, यह केवल ( मुझपर उन लोगोंका ) अनुग्रह है और यदि वह अनुग्रह ( उन देवोंको मुझपर ) करना है तो प्रसन्न होकर ( वे ) उसी (नल ) को मेरे लिए भिक्षा देनेके लिए होवें / [तुच्छ मानुषी मुझपर देवोंके मनका अनुरक्त होना कृपा
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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