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________________ नवमः सर्गः। 401 ( सखी दमयन्तीकी ओरसे कह रही है, अतएव सखीका कथन दमयन्तीका ही कथन समझना चाहिये ) चिर कालसे चित्तमें निषधराज ( नल ) को स्थापित की हुई मैं ऐसा (इन्द्रादि दिक्पालोका वरण करूं या नहीं) विचार भी करने में डरती हूँ (फिर वरण करना तो दूर की बात है, क्योंकि ) मृणाल तन्तुके समान शीघ्र टूटनेवालो पतिव्रता मर्यादा लेशमात्र भी चञ्चलता करनेसे अवश्य ही टूट जाती है / [ बहुत दिनोंसे मैंने नलको अपने नित्तमें स्थापित किया है, अतः इन्द्रादिके वरण करने या न करनेका विचार करने में भी मुझे भय लगता है कि जिस मनमें नल बहुत दिनोंसे रहते हैं, वे उसके गतिविधिको अच्छी तरह समझते हैं और यदि उस मनने दूसरेको वरण करने या नहीं करनेका विचार भी किया तो निषधेश्वर एक विशाल देशका राजा होनेसे उसको ( मुझे) बहुत कठोर दण्ड देंगे, मनके द्वारा ही किसी बातका विचार करना सम्भव होनेसे वहां बहुतकालसे स्थित एक राजाके लिये उसकी स्थिति जानना अत्यन्त सरल बात है और यह भी कारण है कि सती स्त्रीके मनमें भी परपुरुषको वरण करने या न करनेका विचार आनेसे उसके सतीत्वकी मर्यादा टूट जाती है, अतएव मैं इन्द्रादि दिक्पालोंके सन्देशपर मनसे विचार भी नहीं करना चाहती, कार्यसे उन्हें स्वीकार करना तो दूर की बात है, साक्षात् कार्यरूपमें स्वीकृत किये हुएका त्याग करना सर्वथा असम्भव ही है। मैंने निषधेश्वर नलको बहुत समयसे मनसे वरणकर लिया है, अतः इन्द्रादिको वरण करनेका विचार भी नहीं करूंगी] // 31 // ममाशयः स्वप्नदशाज्ञयापि वा नलं विलयतरमस्पृशयदि / कुतः पुनस्तत्र समस्तसाक्षिणी निजैव बुद्धिर्विबुधैन पृच्छयते // 32 // ममेति / अथवा ममाशयश्चित्तवृत्तिः स्वप्नदशायाः स्वप्नावस्थायाः आज्ञयापि वा नलं विलय इतरं पुरुषं यदि अस्पृशत् प्राप्तवान् / सहि समस्तस्य साक्षिणी निजा स्वकीया बुदिरेव तत्र विषये कुतः पुनर्विबुधैः इन्द्रादिभिः न पृच्छयते नानुयुज्यते / सर्वसाक्षिणः स्वयं किं न जानन्तीत्यर्थः॥३२॥ ___अथवा मेरो चित्तवृत्ति स्वप्नावस्थाकी आज्ञासे (स्वप्नावस्थामें ) भी नलको छोड़कर यदि दूसरेका स्पर्श करे ( मनसे स्वप्नमें भी यदि मैं नलके अतिरिक्त किसी की इच्छा करूं तो ) इस विषय में सबकी साक्षिणी अर्थात् सबके मनोभावको जाननेवाली अपनी बुद्धिसे ही विबुध (इन्द्रादि देव, पक्ष-विशिष्ट पण्डित ) वे क्यों नहीं पूछते हैं ? / [ 'सती दमयन्ती स्वप्नमें भी नलके अतिरिक्त किसी दूसरे पुरुषका विचार करेगी क्या ? इस बातको सब कुछ जाननेवाली अपनी बुद्धिसे ही विशिष्ट ज्ञानी इन्द्रादि देव क्यों नहीं समझ लेते ? अर्थात् स्वयं बुद्धिमान् रहते हुए भी इन्द्रदिने जो सन्देश आपके द्वारा मेरे लिये भेजा है, वह अबुद्धिपूर्वक ही भेजा है और अबुद्धिपूर्वक किया गया कार्य कदापि सफल नहीं होता है / इन्द्रादिके अबुद्धिपूर्वक किये गये प्रस्तावको मैं कदापि स्वीकार नहीं करूंगी] // 32 //
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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