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________________ 484 नैषधमहाकाव्यम् / कहे ? ) बहरे हैं। ( पक्षा-वेद भी जैसे-तैसे अर्थात् अप्रामाणिक तथा अनर्गल बातें ग्रहण नहीं करते ) / बालमृगी गजराजमें अनुचित मनोवृत्तिको भी कैसे करे ? / [ जब निकृष्ट पशुजातीय एवं बाल अर्थात् अबोध मृगी भी श्रेष्ठतम गजराजकी अनुचित इच्छा नहीं करती तो भला मैं मनुष्य होकर श्रेष्ठतम इन्द्रादिकी इच्छा कैसे कर सकती हूं, अत एव मैं उनकी उटपटाग ( बे-सिर-पैरकी ) वातोंका एक अक्षर भी नहीं सुनती, पूरी बातें सुनना तो असम्भव ही है ] // 29 // अदो निगद्यैव नतास्यया तथा श्रुतौ लगित्वाभिहितालिरालपत् / प्रविश्य यन्मे हृदयं द्वियाह तद्विनियंदाकर्णय मन्मुखावना // 30 // अद इति / अदः इदं वचो निगयोक्त्वैव नतास्यया अवनतमुख्या तया दमयभ्या श्रुतौ श्रोत्रे लगित्वा आसमा भूत्वाभिहिता कथिता आलिः सखी आलपत् आलपितवती। किमित्यत आह-इयं दमयन्ती हिया लजया मे मम हृदयं प्रविश्य यहच आह अते / मम मुखेनैवाध्वना विनिर्यद्विनिर्गच्छत् तद्वचः आकर्णय शृणु // 30 // यह (इलो० 25-29) कहकर झुकी हुई उस ( दमयन्ती ) के द्वारा कानके पास जाकर कही गयी सखी बोली-(हे दूत) लज्जासे मेरे हृदय में घुसकर ( इस दमयन्तीने ) जो कहा, मेरे मुखरूपी मार्गसे निकलते हुऐ उसे तुम सुनो / [ इतना कहनेके बाद दमयन्तीने झुककर लज्जासे स्वयं न कहकर सखीके कानमें कहा कि 'अब तुम्ही कहो'। फिर वह सखी दूतसे बोली। चित्र आदिमें नलका रूप जैसा दमयन्तीने देखा था तथा नलने भी अपने वंश एवं नामका परिचय देते हुए कहा था, उससे ये नल ही हैं ऐसा दमयन्तीको प्रायः विश्वास हो गया था, अतएव लज्जाभूषण एक कुलाङ्गनाके लिये पति या परपुरुष के सामने स्वयं ही अपना प्रेम प्रकट करने में लज्जा होना अनुचित है, अतः दमयन्तीने झुककर सखोके कानमें अपने नल-विषयक प्रेमकी बात कहने के लिये कहा तो उसकी सखी दमयन्तीकी ओरसे बोलने लगी। लोकमें भी लज्जाशील कोई व्यक्ति अपनी बात स्वयं नहीं कहकर अपना मनोभाव जाननेवाले प्रिय मित्रादिके द्वारा कहलाता है / ] विभेति चिन्तामपि कर्तुमीहशी चिराय चित्तार्पितनैषधेश्वरा / मृणालतन्तुच्छिदुरा सतीस्थितिलवादपि त्रुट्यति पापलात् किल // 31 // बिभेतीति / चिराय चिरात्प्रभृति चित्तेऽर्पितः स्थापितो नैषधेश्वरो नलो यया सा स्त्री ईदृशीं परविषयां चिन्तामपि कर्तुं बिभेति / कुत इत्यत आह-मृगालस्य तन्तु. रिव च्छिदुरा च्छेदशीला, "विदिभिदिच्छिदेः" इत्यादिना कर्मकर्तरि कुरच। सत्याः पतिव्रताया या स्थितिः मर्यादा सा लवादल्पादपि चापल्याहौल्याद्धेतोः त्रुट्यति किल त्रुटति खलु / “वा भ्राशे" त्यादिना श्यन्प्रत्ययः // 31 //
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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