________________ भूमिका राजसमापण्डितोंने श्रीहर्षकृत सरस्वत्यमिनन्दित पुस्तक कश्मीरनरेश 'माषवदेव'को नहीं दिखलायी और परिणामस्वरूप राजा जयन्तचन्द्र के लिए पुस्तकके शुद्ध होनेका राजमुद्रामुद्रित लेख मी श्रीहर्षको नहीं प्राप्त हुआ। क्रमशः दिन, सप्ताह, पक्ष और मास व्यतीत होते गये। राजा जयन्तचन्द्रसे प्राप्त समस्त धन समाप्त हो चुका, वाइन, बैल, ऊँट आदि के साथ वर्तन भी श्रीहर्षको बेचने पड़े। _____एक समय नदीतटपर पानी भरने के लिए दो दासियों गयीं। संयोगवश उन दोनोंमें 'पहले मैं पानीका बड़ा मरूंगी' इस प्रसङ्गको लेकर परस्पर कहासुनी, गाली-गलौज होते-होते मारपीट हो गयी, फलतः दोनोंके शिर तक फूट गये। अपने-अपने पक्षकी पुष्टि करती हुई दोनों दासियोंने राजदरबार में जाकर मुकदमा किया और राजाके प्रत्यक्षद्रष्टा साक्षी मांगनेपर दोनोंने कहा कि एक विदेशी ब्राह्मण नदीतटपर बैठा था, उसके अतिरिक्त दूसरा कोई भी वहाँ नहीं था। राजाशासे राजपुरुष नदीतटपर जाकर ब्राह्मणको साथ ले आये / वस्तुतः ये ब्राह्मणदेव अन्य कोई नहीं, महाकवि मोहर्ष ही थे। दोनों दासियोंके विवादके विषयमें पूछनेपर श्रीहर्षने कहा-'राजन् ! परदेशी होनेके कारण मैं इनके किसी शब्दका भी अर्थ नहीं समझ सका। हाँ, इन दोनोंने जो कुछ एक दूसरेके प्रति कहा या किया, उसे मैं मानुपूर्वी कह सकता हूँ।' ऐसा कहकर श्रीहर्षने' राजाश होनेपर दोनों दासियोंको परस्परोक्त उक्ति-प्रत्युक्तिको अनुपूर्वशः यथावत कह दिया। श्रीहर्षकी धारणाशक्तिसे आश्चर्यचकित राजाने दासीद्वयके विवादका निर्णय कर उन्हें विदा किया तथा साष्टाङ्ग प्रणाम कर श्रीहर्षसे उनका परिचय पूछा। उन्होंने काशीसे यात्रा करनेसे लेकर अब तकके सम्पूर्ण वृत्तान्तको राजासे कह सुनाया। यह सुन अपनी समाके पण्डितोंकी श्रीहर्षके प्रति की गयी असूयासे अत्यन्त दुःखित 'राजाने सभापण्डितोंको बुलाकर उन्हें विकारते हुए कहा-'मूखों! ऐसे परमविद्वान्के साथ स्नेह करनेके बदले असूया करनेवाले तुमलोगोंको धिक्कार है। अब तुम लोग अपने-अपने घरपर ले जाकर इस महात्माका सत्कार करो।' यह सुन श्रीहर्षने नैषधचरितकी प्रशस्तिमें पठित निम्नलिखित श्लोकको पढ़ा 'यथा यूनस्तद्वत्परमरमणीयाऽपि रमणी कुमाराणामन्तःकरणहरणं नैव कुरुते / मदुक्तिश्वेतश्चेन्मदयति सुधीभूय सुधियः किमस्या नाम स्यादरसपुरुषाराधनरसैः // ' (प्रशस्ति 1) यह सुनकर अपने निन्दिन कमसे अतिशय लज्जित राजसभापण्डितोंने अपने-अपने घरपर श्रीहर्षको लेजाकर आदर-सत्कारसे सन्तुष्ट किया। तदनन्तर कश्मीराधीश 'माधवदेव ने भी उनका सत्कार कर ग्रन्थकी शुद्धताका राजमुद्राप्रमाणित लेख देकर उन्हें विदा किया। उसे लेकर वे काशी लौटे तथा राजा जयन्तचन्द्रको लेख दिया और तबसे इस 'नैषधचरित'का प्रचार हुआ।