________________ अष्टमः सर्गः। 455 लगनेसे भूख-प्याससे व्याकुल नहीं होनेके कारण पाथेयका भी उपभोग नहीं करता ) // 87 // प्रिया मनोभूशरदावदाहे देवीस्त्वदर्थेन निमजद्भिः / सुरेषु सारैः क्रियतेऽधुना तैः पादार्पणानुग्रहभूरियं भूः // 88 / / प्रिया इति / त्वमेवार्थः प्रयोजनं तेन निमित्तेन प्रिया दयिताः देवीः शच्यादि. दाराः मनोभुवः कामस्य शरा एव दावो दावाग्निस्तस्य दाहे विरहानले निमजयनिः सद्भिः सुरेषु सारैःश्रेष्ठरिन्द्रादिभिरधुना इयं भूर्विदर्भदेशः पादार्पणमेवानुग्रहस्तस्य भूः स्थानं क्रियते / कुण्डिनोपकण्ठ एव तिष्ठन्तीत्यर्थः // 88 // __ तुम्हारे लिये प्रिय देवियो ( या देवी अर्थात् सती प्रियाओं ) को काम-बाणरूप दावानलके दाहमें मग्न करते अर्थात् विरहके कामबाणाग्नि से पीडित करते हुए, देवोंमें प्रधान वे ( इन्द्रादि ) इस समय इस ( कुण्डिनपुरीकी) भूमिको चरणके अर्पणरूप अनुग्र: इका स्थान बना रहे हैं [ जो देव पृथ्वी पर कभी नहीं चरण रखते थे, वे देवश्रेष्ठ इन्द्रादि तुम्हारे लिये इस भूमि पर पधारे हुए हैं और उनकी प्रिया देवाङ्गनाएँ विरह पीडित हो रही हैं ] // 88 // अलस्कृतासममहीविभागैरयं जनस्तैरमरैर्भवत्याम् / अवापितो जङ्गमलेख्यलक्ष्मी निक्षिप्य सन्देशमयाक्षराणि / / 86 // अलङ्कृतेति / अलङकृत आसन्नमहीविभागो भूप्रदेशो यैस्तैः समीपं गतेस्तैर. मरैरयं जनः स्वयमित्यर्थः। भवत्यां विषये स्वां प्रतीत्यर्थः। सन्देशमयाक्षराणि सन्देशरूपाणि वाक्यानि निक्षिप्य अर्पयित्वा जङ्गमलेख्यस्य चललेख्यस्य लक्ष्मीमा वापितः तेषामहं सन्देशहर इत्यर्थः // 89 // (इस कुण्डिनपुरोकी ) समीपस्थ भूमि के हिस्सेको सुशोभित किये हुये अर्थात् कुण्डिनपुरीके पासमें ठहरे हुए उन इन्द्रादि देवोंने एस आदमीको अर्थात् मुझे तुममें अर्थाद तुम्हारे लिये सन्देशमय अक्षरोंको रख ( या लिख ) कर चल लेखकी शोभा को प्राप्त कराया हैं / अर्थात् तुम्हारे लिये अपना सन्देश मुझे सुनाकर जङ्गम (चलनेबाला) लेख बनाया है। [ कुण्डिनपुरीके पासमें ही ठहरे हुए इन्द्रादिने तुम्हारे लिये अपना मौखिक सन्देश मेरे द्वारा भेजा है ] / 89 // एकैकमेते परिरभ्य पीनस्तनोपपीडं त्वयि सन्दिशन्ति | त्वं मूच्छतानः स्मरभिल्लशल्यैर्मुदे विशल्यौषधितिरेधि / / 90 // एकैकमिति / एते देवाः एकैकं प्रत्येकमेवेत्यर्थः / वीप्सायां द्विरुक्तिः / “एक बहुवीहिवदि"ति बहुव्रीहिवद्रावास्सुलोपः क्रियाविशेषणं चैतत् / अन्यथैकत्वनपुंसकत्वानुपपत्तेः / केचित्पुस्तकेषु 'प्रत्येकमित्येव पाटः। पीनस्तनयोरुपपीड्य पीनस्तनोपपीडं "सप्तम्यां चोपपीटरुधकर्षः" इति णमुल्प्रत्ययः। परिरभ्यालिङग्य सन्दिशन्ति 1. "-लेख-" इति पाठान्तरम् / 2. "प्रत्येकमेते" इति पाठान्तरम् / 21 0