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________________ नवमः सर्गः / 481 इसके ( पूर्व श्लोकोक्त स्वगत भाषण ) के बाद परोक्ष रूपसे स्मित की हुई, पतिव्रता और पतिव्रता-समूहका कोई ( अनिर्वचनीय ) भूषण-स्वरूप यह विदर्भराजकुमारी ( दमयन्ती ) ने फिर उस (नल ) के साथ सम्भाषणके विलासमें उत्कण्ठित मुखको प्रकटरूपसे धारण किया अर्थात् वहां उपस्थित सखी आदि सब लोग द्वारा सुन सकें ऐसे बोली / (अथवा अतिनिर्मल या प्रसन्न मुखको धारण किया, 'सती' तथा 'सती कुलका आभरण' कहनेसे दमयन्तीने पहले जिस पुरुष (नल) को मनसे वरण कर लिया है, अब दिक्पालोंका सन्देश सुनकर भी अपने निश्चयपर ही दृढ़ रहेगी यह सूचित होता है पुनः बोलने में नलके साथ सम्भाषण करनेकी उत्कण्ठा ही कारण है, इन्द्रादि दिक्पालोंके सन्देशका गौरव नहीं ] // 24 // वृथापरीहास इति प्रगल्भता ननेति च त्वाशि वाग्विगहणा। भवत्यवज्ञा च भवत्यनुत्तरादतः प्रदित्सुः प्रतिवाचमस्मि ते // 25 // वृथेति / भवति पूज्ये त्वाशि विषये वृथा परीहास इति वाक / “उपसर्गस्य घयमनुष्ये बहुल" मिति परेर्दीर्घः। प्रगल्भता प्रागल्भ्यं दोषावहेत्यर्थः। कार्यकारणयोरभेदोपचारः। ननेति च वागत्यन्तनिषेधोक्तिश्च, आभाचण्ये द्विर्भावः। विगर्हणा गोक्तिः स्यादित्यर्थः / अनुत्तरात् उत्तरांप्रदानात् अवज्ञा अनादरदोषो भवति / अतो हेतोस्ते तुभ्यं प्रतिवाचं प्रत्युत्तरं प्रदित्सुः प्रदातुमिच्छुरस्मि। परमा र्थतस्तु प्रत्युत्तरानहमेव दाक्षिण्यात्ते वदामीति तात्पर्यम् // 25 // आप-जैसे ( श्रेष्ठ व्यक्ति ) में 'यह धृष्टता है' ऐसा कहना परिहास है ( अथवा'यह परिहास है' ऐसा कहना धृष्टता है ), 'नहीं नहीं' ऐसा वचन निन्दा है, आपके विषय में उत्तर नहीं देनेसे ( आपका ) अपमान होता है इस कारण मैं आपका उत्तर देना चाहती हूँ / ( यदि मैं आपसे 'आप मेरे साथ धृष्टताकर यह बात कह रहे हैं' ऐसा कहूँ तो मेरी सखियां मेरा परिहास करेंगी कि ऐसे श्रेष्ठ व्यक्तिके साथ इस प्रकारका अनुचित वचन दमयन्ती कह रही है, इसे ऐसे अपरिचित पुरुषके साथ ऐसा बर्ताव करना नहीं चाहिये, ) अथवा-यदि मैं आप-जैसे श्रेष्ठ व्यक्तिसे 'आप मेरे साथ परिहास कर रहे हैं' ऐसा कहूँ तो मेरी सखियां एक अपरिचित व्यक्तिके साथ ऐसा कहने पर मुझे धृष्ट समझेंगी। बार-बार यदि मैं आपको निषेध करती हूँ तो उक्त प्रकार से वे सखियां मेरी निन्दा करेंगी, इसी कारणसे में आपकी बातोंका उत्तर देना चाहती हूँ, इन्द्रादि दिक्पालों के सन्देशका महत्वपूर्ण समझकर नहीं उत्तर देना चाहती / इन्द्रादि दिक्पालोंकी अपेक्षा मैं आपको ही गौरवकी दृष्टि से देखती हूँ ] // 25 // कथं नु तेषां कृपयापि वागसावसावि मानुष्यकलाञ्छने जने / स्वभावभक्तिप्रवणं प्रतीश्वराः कया न वाचा मुदमुद्रिन्ति वा // 26 //
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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