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________________ 42 नैषधमहाकाव्यम् / कथमिति / तेषामिन्द्रादीनां कृपयापि (का) मनुष्यस्य भावो मानुष्यकम् / "योपधाद् गुरूपोत्तमाः / तदेव लान्छनं कलको यस्य तस्मिन्निर्दोषजनविषयेऽस्मिनित्यर्थः। असौ वागस्मान् वृणीष्वेति वचनं कथमसावि सूता अनुचितमित्यर्थः। सूतेः कर्मणि लुङ् / वा अथवा ईश्वराः स्वामिनः स्वभावभक्तिप्रवणं जनं प्रति कया वाचा मुदं नोद्विरन्ति भक्तवात्सल्यात् नीचमपि भकजनमत्युच्चयापि वाचा बहु कुर्वन्ति कृपालवः स्वामिन इत्यर्थः / तथा च तद्वचनमुपचारत्वेन गृह्यते / न तु कर्तव्यतयेति भावः // 26 // ____मनुष्यत्वसे लाञ्छित ( चिह्नित पक्षा०-लान्छन 'दोष' ) युक्त जनमें अर्थात् मुझमें उन ( इन्द्रादि दिपालोंकी यह वाणी 'तुम मुझे वरण करो' यह कहना ) कृपासे भी क्यों नहीं है / अथवा स्वभावतः भक्तितत्पर ( भक्तजन ) के प्रति प्रभुलोग किस वचन से हर्षको प्रकट नहीं करते, स्वाभाविक भक्तिमें तत्पर सदोष व्यक्तिको भी जिस किसी वाणीसे अपनाकर सर्व-समर्थ ( ऐश्वर्य-सम्पन्न ) लोग अपना हर्ष प्रकट करते ही हैं, अत एव मानुषी होनेसे लाञ्छनयुक्त ( सदोष ) मुझसे लाञ्छनरहित ( निर्दोष ) देवता वरण करनेकी जा याचना करते हैं वह एकमात्र मेरी स्वाभाविक भक्तिसे प्रसन्न उनका मेरे ऊपर हर्पित होकर कृपा करना ही है। वे देवता केवल मेरे नमस्कार करनेके योग्य हैं, वरण वरनेके योग्य नहीं ] // 26 // अहो महेन्द्रस्य कथं मयौचिती सुराङ्गनासङ्गमशोभिताभृतः। हृदस्य हंसावलिमांसलभियो बलाकयेव प्रबला विडम्बना // 27 // __ अहो इति / सुराङ्गनासङ्गमेन शोभत इति तच्छोभि तस्य भावस्तत्ता तां बिभर्तीति तद्भुतो महेन्द्रस्य हंसावल्या मांसला मांसवती सान्द्रतरेति यावत् / सिध्मादित्वालच / सा श्रीर्यस्य तस्य हृदस्य सरसो बलाकयव मया निमित्तेन प्रबलो महती विडम्बना परिहासः कथमौचिती न कथञ्चिदित्यर्थः / अहो, सति सुरस्त्रीजने मानुषीमनुसरतो महेन्द्रस्यामृतमप्यवधीोदकपानप्रवृत्तिरपि सम्भाव्यत एवेति भावः // 27 // देवाङ्गना ( इन्द्राणी, उर्वशी आदि अप्सराओं) के सङ्गमको शोभाभावको धारण करनेवाले महेन्द्रको बलाका ( बकपंक्ति या बकस्त्री) से हंसावलि ( हंस-समूह ) से पूर्ण शोभावाले तालाबके समान मुझसे बड़ी भारी विडम्बना ही है, अहो यह आश्चर्य है / [ हंस-पक्तिसे शोभित रहनेवाले तडागको एक बलाकासे शोभित करनेकी बातके समान देवाङ्गनाओंके साथ सम्भोग करनेवाले इन्द्रका तुच्छतम मुझ मानुपीको चाहना परिहासमात्र है, अथ च हंसकी अपेक्षा बलाकाके समान देवाङ्गनाओंकी अपेक्षा अतितुच्छ होने से इन्द्रके द्वारा मेरी चाहना करना मेरा केवल परिहास है अतः ऐसा कदापि नहीं हो सकता] // 27 //
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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