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________________ 480 नैषधमहाकाव्यम् / उस दमयन्तीने स्वगत ( आप ही आप-दूसरेके द्वारा नहीं सुनने योग्य ) कहा / [ अथवा....भेजते हुए इन्द्रादिके मनको नीति-निपुणतासे हीन धारण करती हुई ( समझती ) हुई ... ... ... | इतने सुन्दर तथा चतुर ब्यक्तिको मेरे पास दूत भेजनेवाले इन्द्रादि दिक्पाल नीतिमें चतुर नहीं हैं, ऐसा समझकर दमयन्तीने अपने-आप कहा] // 22 // जलाधिपस्त्वामदिशन्मयि ध्रुवं परेतराजः प्रजिघाय स स्फुटम् / मावतैव प्रहितोऽसि निश्चितं नियोजितश्चोर्ध्वमुखेन तेजसा // 23 // स्वगतवाक्यमेवाह-जलेति / जलाधिपो वरुणः लडयोरभेदात् जडाग्रणीश्च मयि विषये मां प्रतीत्यर्थः / त्वामदिशदतिसृष्टवान् ध्रुवम् ? / स प्रसिद्धः परेतराजो यमः प्रेतमुख्यश्च त्वां प्रजिघाय प्रहितवान् स्फुटमसन्दिग्धम् / मरुतो देवाः तद्वता मरुत्वता इन्द्रण वातुलेन च / 'मरुतौ पवनामरौं' इत्यमरः। प्रहितोऽसि निश्चितमूर्ध्वमुखेन तेजसा अग्निना स्थूलदृशा च नियोजितः प्रेषितोऽसि / ते च प्रेषितवन्तः त्वञ्च प्रेषितः सत्यमेवैतत् निष्फलोऽयमारम्भ इति स्वगतमुवाचे. त्यर्थः॥ 23 // मेरे विषयमें ( अत्यन्त सुन्दरी एवं युवती मेरे पास ) तुमको ( लोकोत्तर सुन्दरतम युवकको ) निश्चय ही जलाधीश ( वरुण, पक्षा०-'डलयोरभेदः, इस वचनके अनुसार जड़ों अर्थात् मूखों के राजा) ने भेजा है। स्पष्ट ही उस ( प्रसिद्ध ) परेतराज ( यम, पक्षामर हुए लोगों अर्थात् अचेतनोंके राजा = अतिशय अचेतन ) ने भेजा है / ( तुम ) निश्चय ही मरुत्वान् ( इन्द्र, पक्षा०-वायु-समूह ) से ही भेजे गये हो। ऊपर मुखवाले तेज ( अग्नि, पक्षा०-ऊपर मुखवाले पिशाच ) से ही (दूत कार्य में ) नियुक्त हुए हो। [ ऊपर मुखवाले व्यक्तिका नीचेकी वस्तु का देखना असम्भव होनेसे ऊर्ध्वमुख अग्निने तुम्हारी सुन्दरताको नहीं देखा, यह ठीक ही है ) / वरुण, यम, इन्द्र तथा अग्नि बस्तुतः ये क्रमशः जडोंका राजा, मृतकों ( अचेतनों ) का राजा, वायुसमूह ( आँधी ) और ऊर्ध्वमुख पिशाच ही हैं, जिन्होंने भलोकके कामदेवरूप तमको मेरे पास दूतरूप में भेजते हुए यह नहीं विचारा कि इस युवक सुन्दर पुरुषको देखकर युवती एवं सुन्दरी दमयन्ती आसक्त हो जायेगी और यदि हम लोगोंको वरण करना चाहतो भी होगी तो इसे देख हम लोगोंको वरण काने का विचार छोड़कर इसे ही वरण कर लेगी, अतः इसे वहां भेजना उचित नहीं हैं ] // 23 // अथ प्रकाशं निभृतस्मिता सती सतीकुलस्याभरणं किमप्यसौ। पुनस्तदाभाषणविभ्रमोन्मुखं मुखं विदर्भाधिपसम्भवादधे / / 24 / / अथेति / अथ स्वगतोक्त्यनन्तरं सतीकुलस्य पतिव्रतावर्गस्य किमप्यनिर्वाच्यमाभरणमलङ्कारभूता असौ विदर्भाधिपसम्भवा वैदर्भी निभृतस्मिता गम्भीर स्मिता सती प्रकाशं यथा तथा पुनस्तेन सहाभाषणमेव विश्रमो विनोदः तत्रोन्मुखमुत्सुकं मुखमास्यमादधे आबभाषे इत्यर्थः // 24 //
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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