________________ 146 नैषधमहाकाव्यम् / ब्रह्माके निर्लज्ज उस हाथको धिक्कारा है, जो पूर्णिमामें पूर्ण चन्द्र की रचना करता हैं, तथा (ब्रह्माके ) उस हाथको मैं निपुण मानता हूँ, नलके मुखकी शोभाको स्मरण किये हुए जिस (ब्रह्माके हाथ ) ने उस चन्द्रमा को शिवजीके मस्तकपर फेंक दिया ( अथवा नलंके मुखकी शोभाको स्मरण किये हुए निर्लज्ज उस ब्रह्माके हाथको धिक्कार है, जो पूर्णिमामें पूर्ण चन्द्रकी रचना करता हैं,.... ) / [ यद्यपि पूर्ण कला वाले चन्द्रमाकी रचना ब्रह्माका जो हाथ करता है, वही एक कलावाले भी चन्द्रमाकी रचना करता है, तथापि तिथिरूप कालभेदसे ब्रह्माके हाथमें भिन्नताका आरोप किया गया है। नलका . मुख पूर्ण चन्द्रमासे भी अधिक सुन्दर है ] // 32 // निलयिते होविधुरः स्वजैत्रं श्रुत्वा विधुस्तस्य मुखं मुखानः / सुरे समुद्रस्य कदापि पूरे कदाचिदभ्रभ्रमदभ्रगर्भ / / 33 / / निलीयत इति / विधुश्चन्द्रःस्वस्य जैत्रं, तृन्नन्तात्प्रज्ञादित्वात् स्वार्थेऽण प्रत्ययः / तस्य नलस्य मुखं नोऽस्माकं मुखाच्छ्रुत्वा हीविधुरः लजाविधुरः सन् कदापि सूरे सूर्ये दर्शष्वित्यर्थः, कदापि समुद्रस्य पूरे प्रवाहे तदुत्पनत्वात् कदाचिदभ्रभ्रमदभ्रगर्भे आकाशे सञ्चरमाणमेघोदरे निलीयते अन्तर्धत्ते, न कदाचिदग्रतः स्थातुमुत्सहत इति भावः / अत्र विधोः स्वाभाविकसूर्यादिप्रवेशे पराजयप्रयुक्तहीनिलीनत्वोत्प्रेक्षा म्यञ्जकाप्रयोगाद् गम्या // 33 // हम लोगोंके मुखके उस नलके मुखको स्वविजयी ( चन्द्रमाको जीतनेवाला ) सुनकर लज्जासे विकल होकर वह चन्द्रमा किसी समय ( अमावस्या तिथिको) सूर्यमें, किसी समय ( अस्त होनेके समयमें ) समुद्र-प्रवाहमें तथा किसी समय ( वर्षाऋतुमें ) बादलों के बीचमें छिप जाता है / लोकमें भी कोई दुर्बल व्यक्ति लज्जासे दुःखी होकर अपने विजयीके पामने नहीं होता और अलक्षित स्थानमें छिपा करता है ] // 33 // संज्ञाप्य नः स्वध्वजभृत्यवर्गान् दैत्यारिरजनलास्यनुत्यै / तत्संकुचन्नाभिसरोजपीतादातुविलज्ज रमते रमायाम् / / 34 // __ संज्ञाप्येति / दैत्यारिः विष्णुः स्वध्वजस्य गरुडस्य पज्ञिराजस्य भृत्यवर्गानोsस्मान् अतिक्रान्तमब्जमत्यब्जमब्जविजयीत्यर्थः / अत्यादयः क्रान्ताद्यर्थे द्वितीयये'ति समासः / तस्य नलास्यस्य नुत्यै स्तोत्राय, 'स्तवः स्तोत्रं स्तुतिर्नुतिरि'त्यमरः। संज्ञाप्य तत्सकुचता तया नुत्या निमीलतानाभिसरोजेन पीतात्तिरोहिताद्धातुर्ब्रह्मणो विलज्जं यथा तथा रमायां रमते / अत्र विष्णोरक्तव्यापारासम्बन्धेऽपि सम्बन्धोक्ते. रतिशयोक्तिः // 34 // विष्णुभगवान् अपनी ध्वजामें (स्थित पक्षिराज गरुड़के) भृत्य-समूह हमलागा ( ब्रह्माके बाइनभूत सों) को नलके कमलातिशायिनी मुख-शोभाका वर्णन करने के लिए संकेतकर उस ( नलके मुखकी स्तुति ) में सचित होते हुए नामिकमलमें अन्तहिंत