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________________ 526 नैषधमहाकाव्यम् / (बाहर निकाला ) जाता है, किन्तु तुमने अपराध नहीं करनेपर भी हारोंको निकाल दिया है और उनके स्थान पर अश्रुबिन्दुओंको अविरल गिराकर हार-सा बना रही हो, यह अनुचित है, अतः रोना बन्द करो, हृदयको हारसे अलकृत करो ] // 105 // रशोरमङ्गल्यमिदं मिलजलं करेण तावत् परिमार्जयामि ते / अथापराधं भवदघ्रिपङ्कजदयोरजोभिः सममात्ममौलिना // 106 // दृशोरिति / इदं ते दृशोरचणोर्मिलदुरपद्यमानममङ्गस्यममङ्गलकारि जलमश्रु तावत् करेण परिमार्जयामि परिमार्मि, मृजेश्चौरादिकाल्लट् / अथाश्रमार्जनानन्तरम्, अपराधमात्मवञ्चनदोष भवदध्रिपङ्कजद्वयीरजोभिः समं त्वचरणकमल रेणुभिः सहेति सहोक्त्यलङ्कारः / आत्मनो मौलिना मुकुटेन प्रणामेनेत्यर्थः / परिमार्जयामि // 106 // (तुम्हारे ) नेत्रों में लगे हुए अमङ्गलकारक इस जल ( आंसू ) को पहले ( अथवासम्यक् प्रकारसे ) हाथसे परिमार्जित (दूर) करता हूँ अर्थात् पोछता हूँ / इसके बाद तुम्हारे चरणकमलद्वयकी धूलिके साथ (अपने किये गये तुम्हारे वञ्चनारूप ) अपराधको अपने मस्तकसे परिमार्जित ( दूर ) करता हूँ। [ रोना अशुभ है, अतः तुम मत रोवो, तथा यदि मेरे अपराधके कारण तुम रो रही हो तो उस अपराधको चरणकमलोंपर मस्तक रखकर क्षमा कराता हूं, अत एव तुम मेरा अपराध क्षमाकर प्रसन्न हो जावो ] // 106 // मम त्वदच्छाधनखामृतातेः किरीटमाणिक्यमयूखमञ्जरी / उपासनामस्य करोतु रोहिणी त्यज त्यजाकारणरोषणे ! रुषम् / / 107 // ममेति / हे अकारणमेव रोषणे ! कोपने ! "क्रधमण्डार्थेभ्यश्च" इति युच्प्रत्ययः। रोहिणी लोहितवर्णा, "वर्णादनुदात्तात्तोपधात्तो न" इति डीप नकारश्च / मम किरीटमाणिक्यमयूखानां मारी सैव रोहिणी चन्द्रप्रिया सैव तारा अस्य पुरःस्थितस्य तवाच्छाधिनखस्यैवामृतातेश्चन्द्रस्योपासनां करोतु, रोहिण्याश्चन्द्रसेवौचित्यादिति भावः / रुषं रोषं त्यज अभीषणन्त्यजेत्यर्थः। "नित्यवीप्सयोः" इति नित्यार्थे द्विर्भावः। नित्यमभीक्षणम् / "प्रणिपातप्रतीकारः संरम्भो हि महात्मना" मिति भावः। रूपका. लङ्कारः॥ 107 // "मेरी रोहिणी ( लाल वर्ण, पक्षा०- रोहिणी' नामक तारा) मुकुटमें माणिक्योंके किरणों का समूह या मञ्जरीके समान कान्ति इस ( प्रत्यक्षस्थित ) तुम्हारे निर्मल चरण-नख. 'रूपी चन्द्रमाकी सेवा करे, हे निष्कारण क्रोध करनेवाली प्रिये ! क्रोधको छोड़ी छोड़ो। [ मैं तुम्हारे चरणों पर मस्तकसे प्रणाम करता हूँ, तुम बहुत शीघ्र क्रोधको छोड़ो निष्कारण क्रोध मत करो / चन्द्रमा की स्त्री 'रोहिणी' नामकी तारा चन्द्रमाकी जिस प्रकार उपासना करती है, उसी प्रकार मेरी रक्तवर्ण मुकुटमें जड़े हुए माणिक्योंकी लालवर्णवाली कान्ति तुम्हारे चरणोंकी उपासना करती है, अतएव इस सेवासे निष्कारण क्रोधको छोड़कर तुम मेरे ऊपर शीघ्र ही प्रसन्न हो जावो] // 107 /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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