________________ नवमः सर्गः। 525 हे नीलमके समान श्रेष्ठ नेत्रोंवाली ( पक्षा०-नीलमके समान पुतलियोंसे युक्त नेत्रोंवाली) ! सघन ( अविरल ) अश्रुबिन्दुओंके गिरने के बहानेसे (पक्षा०-सघन अश्रुरूप मिन्दुके नहीं रहनेसे ) बूंदोंको गिरानेकी अत्यन्त चतुरता ( पक्षा०-'बिन्दुच्युतक' नामक शब्दालकारवाले विचित्र काव्यकी अत्यन्त चतुरता) शोमती है / जिस ( चतुरता ) से तुम 'संसार' ( जगत, पक्षा०-'संसार' शब्द ) को अपने द्वारा निश्चय ही 'ससार' (सारयुक्त पक्षा०-बिन्दु अर्थात् अनुस्वारके नहीं रहनेसे 'ससार' शब्द ) कर रही हो। [ तुम अविरल अश्रुबिन्दुओंको जो गिरानेका बहाना कर रही हो, यह तुम्हारी बिन्दुओंको गिराने ( पक्षा०-बिन्दुच्युतक शम्दालङ्कारयुक्त विचित्र काव्यरचना करने) में चतुरता है अर्थात् तुम सबसे अधिक अलीक रोदनमें चतुर हो / उस चतुरतासे ही (असार भी ) संसार ( पक्षा०-'संसार' शब्द ) को तुमने 'ससार' (श्रेष्ठ वस्तुसे युक्त, पक्षा०-'संसार' शब्द ) कर दिया, अतएव संसारमें तुम्हारे-जैसा अलीक रोदन करने में कोई चतुर नहीं है / यह तुम्हारा अलीक रोदन भी बहुत ही शोभित हो रहा है। जिस रचनामें किसी शम्दके बिन्दु अर्थात् अनुस्वार हटा देनेसे उस शब्दका दूसरा अथ हो जाता है, वह 'विन्दुच्युतक' नामक शब्दालङ्करसे युक्त विचित्र काव्य होता है ] // 104 / / अपास्तपायोहाह शायत कर कराषि लीलानालन किमाननम् / तनोषि हारं कियणः वरदोषनिर्वासितभूषणे हृदि // 105 / / भपास्तेति / हे प्रिये ! कि किमित्यपास्तं त्यक्तं पायोरुट लीलापयोरुहं येन तस्मिन् करे शायितं स्थापितमारोपितमाननमेव लीलामलिनं करोषि, लीलाकमल. परिहारेण करकपोलकरणे किं कारणमित्यर्थः / भदोषाण्येव निर्वासितानि परित्या कानि भूषणानि पेन तस्मिन् हदि भक्षुणः सवैरश्रुधाराभिरेव हारं कियत्तनोषि ? किमर्थ रोविषीत्यर्थः // 105 // (विरहके कारण ) लीलाकमलसे शून्य हाथ में मुखको ( रखकर उसे ) लीलाकमल क्यों बना रही हो ? ( चिन्ताको छोड़कर लीलाकमलको हाथसे ग्रहण करो, हाथ अर्थात् हथेलीपर मुख मत रखो ) / विना अपराधके ही निकाले गये हारोंवाले अर्थात् हाररहित हृदय में आँसुके गिरानेसे हारको कब तक बनाओगी ? [ सापराध व्यक्तिको निर्वासित किया 1. तद्यथा-"धर्माधर्मविदः साधुपक्षपातसमुद्यताः। गुरूणां वंचने निष्ठा नरके यान्ति दुःखिताम् // " इति / अस्य 'ये धर्ममेवाधर्म विदन्ति, साधुजनानां पक्षस्य नाशाय उद्यताः, गुरूणां वचने प्रतारणे संलग्नाः सन्ति; ते नरके दुःखं प्राप्नुवन्ति' इति सामान्योऽर्थः / 'वंचन' शब्दगस्यानुस्वारस्य नाशे 'ये धर्ममधर्मश्च जानन्ति, साधुजनाना पक्षपातामुखताः सन्ति, गुरूणां वचने सादराः सन्ति, हे नर ! ते के नरा दुःखं प्राप्नुवन्ति न केपीत्यर्थः' इत्यन्योऽर्थो विन्दुनाशेन जायत इतीदं पथं बिन्दुच्युतकाख्यशब्दालङ्कारयुतं विचित्रं काव्यमिति बोध्यम् /