________________ 524 नैषधमहाकाव्यम् / विलासोंसे मिश्रित प्रियाकी क्रियाओं ( विलाप चेष्टाओं, या शृङ्गार चेष्टाओं ) को विचारते हुए बिना समझे ( अज्ञानपूर्वक ) कहने लगे- [ उन्मादके कारण प्रणयकलए आदिकी सम्भावना करते हुए दमयन्तीसे कहने लगे / उन्मादयुक्त व्यक्तिका अपना कर्तव्य भूलनातथा प्रलाप करना अनुचित नहीं होनेसे नलका भी इन्द्रादिके दूतकर्मको भूलकर अशानपूर्वक दमयन्तीके सामने प्रलाप करना दोषजनक नहीं हुआ ] // 102 // अयि ! प्रिये ! कस्य कृते विलप्यते विलिप्यते हा मुखमप्रविन्दुभिः / पुरस्त्वयालोकि नमनयन्न किं तिरश्चललोचनलीलया नलः // 103 // अथ प्रलापमेवाष्टादशभिराह-अयीत्यादि / अयि प्रिये ! भैमि ! कस्प कृते के प्रति विलप्यते / भावे लट् / मुखम् अश्रुबिन्दुभिर्विलिप्यते / प्रदूष्यते / कर्मणि ल हेति खेदे। पुरोऽग्रे नमन् प्रणमन् अयं नलस्वया तिरश्चलतः तिर्यक प्रसरतो लोच. नस्य लीलया विलालेन साचीकृतरष्टयेत्यर्थः / नालोकि न बटः किम् ? अपरोके परोक्षवटुपालम्भो न युक्त इत्यर्थः // 103 // हे प्रिये ! किसके लिये अर्थात् क्यों विलाप करती हो? हाय ! तुम्हारा मुख आँसुओंकी बूंदोंसे लिप्त (व्याप्त) हो रहा है, सामने नम्र होते हुए इस (नल) को अर्थात मुझे तुमने तिर्थक चञ्चल कटाक्षसे ( अथवा-तिर्यक् चञ्चल नेत्र-विलास कटाक्षादि से) युक्त तुमने नम्र होते हुए अर्थात् (प्रणयपित तुमको प्रसन्न करनेके लिये ) चरणों में प्रणाम करते हुए इस नलको अर्थात् मुझे नहीं देखा क्या ? [प्रणयकुपित होनेसे तुम्हारे नेत्र कुटिल हो रहे हैं आँसुओंसे भर गये हैं, यही कारण है कि तुमको प्रसन्न करनेके लिये सामने अपने चरणों पर झुके हुए भी मुझको तुमने नहीं देखा है, अतएव अब रोना बन्द करो और प्रसन्न होवो ] // 103 / / चकास्ति बिन्दुच्युतकातिचातुरी घनाश्रुपिन्दुतिकैतषात्तव / मंसारसाराक्षि ! ससारमात्मना तनोषि संसारमसंशयं यतः / / 10 / / घकास्तीति / मसारसाराधिन्दनीलमणिश्रेष्ठी साविधाषिणी यस्यास्तस्याः सम्बुद्धिः। हे मसारसाराति ! धनाश्रुबिन्दुनुतेः सान्द्राश्रुविन्दुच्युतेः। कैतवात्तव 'बिन्दोरनुस्वारस्य च्युतमेव ज्युसकं बिन्दुच्युतकं विचित्रवाक्यभेदः तत्राति चातुरी घकास्ति भाति, ततस्तचातुर्यादेव संसारं भवं संसारशब्दश्चात्मना स्वसामयेन च ससारं सारवन्तं च्युतानुस्वारश्च तनोपि / असंशयं संशयो नास्तीत्यर्थः। अर्थाभावेs. * ग्ययीभावः / त्वया मे संसारसाफल्यमिति भावः / अत्र कैतवशब्देनाश्रुविन्दुच्युते. स्तान्प्यापह्नवेन वर्णात्मकबिन्दुच्युतकत्वारोपादपलवभेदः, तदुपजीवनेन संसारमिति 'श्लिष्टपदोपात्तप्रागुक्तार्थद्वयाभेदाध्यवसायेन बिन्दुच्युतकाण्यकाव्यकरणोरप्रेक्षणात् श्लेषमूला सापह्नवोत्प्रेक्षा सा चासंशयमिति व्यञ्जकप्रयोगाद्वाच्येति // 104 // 1. "मसारताराक्षि" इति पाठान्तरम् /