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________________ 144 नेषधमहाकाव्यम् / देते, किन्तु स्वयं नलगुणको सुननेसे हर्षोत्पन्न अश्रुसे भरे हुए नेत्र होनेके कारण उस रोमाञ्चको इन्द्र नहीं देख सके यह इन्द्राणीका भाग्य समझना चाहिये अथवा-नलकी उदारताको सुनते हुए बार-बार प्रसन्न अर्थात् रोमाञ्चित होते हुए हर्षाथ से व्याप्त नेत्रसमूहवाले इन्द्रने इन्द्राणीके रोमाञ्चको इन्द्राणीके पुण्य से नहीं देखा ] // 28 // साऽपीश्वरे शृण्वात तद्गुणोघान् प्रसह्य चेतो हरतोऽर्धशम्भुः। अभूदपर्णाऽङ्गुलिरुद्धकर्णा कदा न कण्डूयनकैतवेन 1 // 29 // सेति / ईश्वरे हरे प्रसह्य चेतो हरतो बलान्मनोहारिणस्तस्य नलस्य गुणौघान् शृण्वति सति सा प्रसिद्धा अर्ध शम्भोरर्धशम्भुः शम्भोरर्धाङ्गभूतेत्यर्थः। तथा चापसरणमशक्यमिति भावः / अपर्णा पार्वत्यपि कदा कण्डूयनकैतवेन कण्डूनोदनन्याजेन अङ्गुल्या रुद्धः पिहितः कर्णो यया सा नाभूत अभूदेवेत्यर्थः / अन्यथा चित्तचलनादिति भावः // 29 // चित्तको बलात्कारपूर्वक हरण ( वशीभूत ) करते हुए, नलके गुण-समूहोंकी शङ्करजीके मुनते रहनेपर अद्धशम्भु वह ( पतिव्रताओंमें सुविख्यात) पार्वती कान खुजलानेसे छलसे कब अङ्गलिसे कानको नहीं बन्द कर लेती है ? [शङ्करजीका आधा शरीर पार्वती हैं, अतएव जब शङ्करजी नलके गुण-समूहोंको सुनने लगते हैं, तब नलके गुण-समूह बलात्कारपूर्वक ( इच्छा नहीं रहनेपर भी ) पार्वतीके चित्तको आकृष्ट करते हैं, और उस चित्ताकर्षणसे पार्वतीको पातिव्रत्यके भङ्ग होने का भय उत्पन्न हो जाता है, अतएव आधे शरीरमें रहनेसे अन्यत्र जानेमें अशक्त पार्वती कान खुजलानेके छलसे अपने कानको बन्द कर लेती है कि न में नलके गुण-समूहोंको सुनूगी और न मेरा पातिव्रत्य भङ्ग होगा] // 29 // अलं सजन धर्मविघी विधाता रणाद्ध मौनस्यामषेण वाणीम् / तत्कण्ठमालिङ्गय रसस्य तृमां न वेद तां वेदजडः स वक्राम // 30 // अलमिति / विधाता ब्रह्मा अलमत्यन्तं धर्मविधौ सुकृताचरणे सजन् धर्मासक्तः सचित्यर्थः / वाणी स्वभार्या वाग्देवीं वर्णात्मिकाच मौनस्य वाग्यमनव्रतस्य मिषेण रुणद्धि नलकथाप्रसङ्गाबिरुन्धे, तस्या उभय्या अपि तदासङ्गभयादिति भावः / किन्तु वेदजडः छान्दसः विधाता तामुभयीमपि वाणीं तस्य नलस्य कण्ठं ग्रीवामालिङ्गय मुखमाश्रित्य च रसस्य तृप्तां तद्रागसन्तुष्टामन्यत्र शृङ्गरादिरसपुष्टाञ्च / सम्बन्धसामान्ये षष्ठी, 'पूरगगुणे'त्यादिना षष्ठीनिषेधादेव ज्ञापकादिति केचित् / वक्रां प्रतिकूलकारिणीं वक्रोक्त्यलङ्कारयुक्ताञ्च न वेद न वेत्ति, 'विदो लटो वेति णलादेशः / अशक्यरक्षाः स्त्रिय इति भावः / अत्र प्रस्तुतवाग्देवीकथनादप्रस्तुतवर्णात्मकवाणीवृत्तान्तप्रतीतेः प्रागुक्तरीत्या ध्वनिरेवेत्यनुसन्धेयम् // 30 // धर्मकार्यमें अत्यन्त आसक्त ब्रह्मा मौनके छलसे वाणी (स्त्री-पक्षा०-वचन) को अत्यन्त रोकते हैं (बाहर जाकर मेरी प्रिया यह वाणी पुरुषान्तर के पास चली जायेगी
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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