SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 356
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 327 पञ्चमः सर्गः तार्थस्य अवितथता सत्यता, सैव गुणः, उत्कृष्टधर्मः सः एव पाशो बन्धः, स्वादशेन विदुषा स दुरपासः दुरुन्छेदः / बलिवियादिरशाम्तेन यावज्जीवनिबन्धेनापि प्रति. ज्ञातार्थनिर्वाहः कार्य इत्यर्थः // 130 // दैत्यराज बलि तथा विन्ध्य पर्यंत जिस ( सत्यप्रतिज्ञरूप गुणपाश ) से बंधे हुए भाज तक भी विचलित होने ( अपनी स्वीकृत बातको झूठा करने ) में समर्थ नहीं हुए अर्थात् जिस बातको स्वीकृत किये, उसका आजतक पालन कर रहे हैं। तब तुम्हारे-जैसे ('आस्थित' पाठमें -वैसे सुप्रसिद्ध ) विद्वान्को उस सत्यप्रतिशत्व-गुण-पाशका त्याग नहीं करना चाहिये / [ जब अत्यन्त उच्लबल स्वभाववाले दैत्योंका राजा बलि तथा जड़ एवं कठोरतम विन्ध्य पर्वत मी स्वीकार की हुह अपनी बातपर भाजतक डटे हुए हैं ( उसे झूठा नहीं करते ) तब आप भी हमलोगों के दूत-कर्मको स्वीकृतकर 'भङ्गोकृतं सुकृतिनः परिपालयन्ति' नीतिको स्मरणकर अन उससे पराङ्मुख मत होइये / पहले राजा बलि वामन भगवान्को तीन पैर भूमि दानकर उनसे वचनबद्ध होकर आजतक पाताललोकमें रहते हैं, तथा सुमेरुको जीतने की इच्छासे बढ़ते हुए विन्ध्य पर्वतको सूर्य-मार्ग रुकने की आशङ्कासे युक्त देवों की प्रार्थनासे दक्षिण दिशाको जाते हुए अपने गुरु अगस्त्य मुनिको साष्टाङ्ग दण्डवत् करनेवाला विन्ध्यपर्वत उनके कहनेसे भाजतक वैसे ही पड़ा हुआ है, ये दोनों पौराणिकी कथायें जाननी चाहिये ] // 130 // प्रेयसी जितसुधांशुमुखश्रीर्या न मुञ्चति दिगन्तगतापि / भङ्गिसङ्गमकुरङ्गहगर्थे कः कदर्थयति तामपि कीतिम् / / 131 / / प्रेयसीति / प्रेयसी प्रियतमा, जिता सुधांशुमुखानां चन्द्रादीनां श्रीर्यया सा। अन्यत्र, जितसुधांशुमुखश्रीर्यस्याः सा तथोका। या कीर्तिदिगन्तगतापि देशा. न्तरगतापि, न मुश्चति / तामपि कीर्ति भनिसनमः भंगुरसतिर्यस्यास्तस्याः कुरङ्गाशोऽर्थे तदर्थम् / तादथ्यऽग्ययीभावः / कुरिसतोऽर्थः कदर्थः / 'कोः कत्तःपुरुः चि' इति कुशब्दस्य कदादेशः, तं करोति कदर्थयति व्यर्थयतीत्यर्थः / को नामा. स्थिरार्थ स्थिरं जह्यादिति भावः // 131 // चन्द्रमा आदिको शोमाको बीतनेवाली ( पक्षान्तरमें-चन्द्रमुखी अर्थात चन्द्रमाके समान शोमायुक्त मुखवाली स्त्रीको शोमाको जीतनेवाली ) बो परमप्रिया ( कीर्तिरूपिणी सी) दिशाओं के अन्त अर्थात् बहुत दूरतक जाकर भी ( पतिको ) नहीं छोड़ती, उस कीर्ति (रूपिणी स्त्री) को मङ्गुर (विनाशशील ) सहवासवाली मृगनयनी (पक्षान्तरमें-मंगुर साथवाली लोकमोहिनी होनेसे निन्दित दृष्टिवाली ऐसी स्त्री) के किये कौन (पुरुष) पीडित करेगा ? अर्थात कोई नहीं। [कोतिरूपिणी स्त्री श्वेत होनेसे चन्द्र, तारा मादिको, 22 नै०
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy