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________________ तृतीयः सर्गः। 183 करानेवाले पाप ( 'राक्षस' विवाह करने ) से भी नहीं डरते है, तथा ( क्षत्रियके लिए दासता करनेका निषेध होनेपर भी ) तुम्हारी दासता करने में भी नहीं लज्जित होते हैं; (इससे अनुमान होता है कि) कामदेवने तीक्ष्ण बाणोंसे इनके स्वल्प स्वभावको भी अधिक छील कर काट ( क्षीण कर ) दिया है / पूर्व श्लोक ( 3 / 109 ) में नलके शरीर को बाणोंसे छीलकर कृश करनेकी चर्चा की गयी है, अत एव ज्ञात होता है कि बाणोंसे शरीरको छीलकर पतला करते हुए कामदेवने इनके स्वभावको भी अधिक छीलकर पतला (दुवैल ) कर दिया है, जिसके कारण पहले पापकर्मसे डरनेवाले तथा दास्यकर्मसे लज्जित होनेवाले नल इस समय उनके करनेके लिए भी तैयार हो गये हैं ] 110 / / स्मारं ज्वरं घोरमपत्रपिष्णोस्सिद्वागदहारषये चिकित्सौ। निदानमौनादविशद्विशाला साक्क्रामिकी तस्य रुजेव लज्जा / / 11 / / स्मारमिति / घोरं दारुणं स्मारं ज्वरं कामसन्तापं चिकित्सौ प्रतिकर्तरि कितनिवास इति धातोः 'गुप्तिकिझ्यः सन्निति निन्दाक्षमाव्याधिप्रतीकारेषु इष्यत' इति रोगप्रतीकारे सन् प्रत्ययः, 'सनाशंसभिक्ष उ', 'नलोके'त्यादिना षष्ठीप्रतिषेधः / सिद्धागदकारचये सिद्धवैद्यसंघे कर्मण्यणि 'कारे सत्यागदस्येति मुमागमः / निदानमौनाद्रोगनिदानानभिधानाद्धतोरपत्रपिष्णोलज्जाशीलस्य 'अलकृषि'त्यादिना इप्णु च / तस्य नलस्य विशाला महती लज्जा संक्रमादागता सांक्रामिकी रजेव, 'अक्षिरोगो ह्यपस्मारः क्षय कुष्टो मसूरिका। दर्शनात् स्पर्शनाहानात् संक्रमन्ति नरा. भरम् // इति उक्ताक्ष्यादिरोगा इवेत्यर्थः, भिदादित्वादङ प्रत्ययः, अविशत् // 111 // भयङ्कर कामज्वरकी चिकित्सा करने की इच्छा करनेवाले अनुभवी वैद्य-समूहमें लज्जाहीन उस नलकी विशाल लज्जा ( रोगके कारणको ठीक नहीं समझ सकनेके कारण ) निदानमें मौन धारण करनेसे मानो सङ्क्रामक रोगके समान प्रविष्ट हो गयी / [ नलको भयङ्कर कामज्वर होनेपर अनुभवी बहुतसे वैद्य उनकी चिकित्सा करना चाहते थे, किन्तु रोगका निदान ठीक नहीं कर सकनेके कारण वे लज्जित हो गये अत एव ज्ञात होता है कि नलने तुम्हारे विरहमें जो लज्जा त्याग कर दिया है, वही विशाल लज्जा संक्रामकरोग ( कुष्ठ, अपस्मार आदि छुतही बीमारी) के समान उन वैद्योंमें प्रविष्ट हो गयी है / रोगका ठीक निदान नहीं करनेसे वैद्य-समूहका लज्जित होकर मौन धारण करना उचित ही है / अथवा जब वे रोगका ठीक निदान नहीं कर सके, तब नलसे ही रोगका कारण पूछे और उन्होंने 'दमयन्ती-विरजन्य यह कामज्वर है' ऐसा लज्जा छोड़कर स्पष्ट कह दिया अत एव वे 'लज्जित हो गये कि बिना इनके कहे हम रोग-निदान नहीं कर सके / इस प्रकार मानो नलकी लज्जा उन वैद्योंमें प्रविष्ट हो गयी ] // 111 / / तथा-'गान्धर्वो राक्षसश्चैव धम्यौं क्षत्रस्य तौ स्मृतौ / ' इति च ( मनु० 3 / 26) एतद्विषयकविशेषजिज्ञासायां मत्कृतो मनुस्मृते; 'मणिप्रभा'नुवादो द्रष्टव्यः /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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