________________ 184 नैषधमहाकाव्यम् / विभेति रुष्टाऽसि किलेत्यकस्मात्स त्वां किलोपेत्य हसत्यकाण्डे / यान्तीमिव त्यामनुयात्यहेतोरक्तस्त्वयेव प्रतिक्ति मोघम् / / 112 // अथ उन्मादावस्थामाह-बिभेतीति / स नलः अकस्मादकाण्डे रुष्टा कुपिता. सीति बिभेति, अकाण्डे अनवसरे उपेत्य किल प्राप्येव हरूति, अहेतोरकस्माद्यान्ती गच्छन्तीं किल वामनुयाति, त्वया उक्त इव मोघं निर्विषयं प्रतिवक्ति / सर्वोऽप्ययमुन्मादानुभावः / उन्मादश्चित्तविभ्रमः // 12 // ( अब आटवीं 'उन्माद' दशाका वर्णन करता है-) वे (नल ) 'तुम रुष्ट ह। गयी हो' ऐसा समझकर एकाएक डर जाते हैं, मानो तुम्हारे पास जाकर (पाठा०-तुम्हें पाये हुए-से अर्थात् 'तुम्हें पा लिया है। ऐसा समझकर ) तुम्हारा अनुगमन करते हैं और 'तुमने कहा ( नलसे बातचीत की )' ऐसा समझकर व्यर्थ प्रत्युत्तर देते हैं / 112 / / भवद्वियोगाच्छिदुरार्तिधारायमस्वमुर्मज्जति निश्शरण्यः / मूच्.मयद्वीपमहान्ध्यपके हा हा महीभृद्भटकुखरोऽयम् / / 113 // अथ मूर्छावस्थामाह-भवदिति / भवत्या वियोगो भवद्वियोगः, 'सर्वनाम्नो वृत्तिमात्रे पुंवद्भावः। तस्मिन्नच्छिदुरा अविच्छिन्ना 'विदिभिदिच्छिदेः कुरच' / आर्तिधारा दुःखपरम्परा तस्या एव यमस्वसुर्यमनाया मूर्छामयं मूर्छावस्थारूपं यद्वीपं तत्र यन्महान्ध्यं महामोहस्तस्मिन्नेव पङ्के महीभृद्भटो राजवीरः स एव कुअरः निःशरण्यो निरालम्बः सन् मजति हा हेति खेदे / रूपकालङ्कारः। आर्तिधारायास्तमोविकारत्वेन रूपसाम्यायमुना रूपणम् // 113 // ( अब राजहंस नवीं 'मू ' वस्थाका वर्णन करता है-) यह राजश्रेष्ठरूप हाथी नल तुम्हारे विरहसे उत्पन्न शाश्वत पीडाप्रवाहरूपी यमुनाके मूर्छारूप द्वीप (टापू-चारों ओर जलसे घिरा हुआ निर्जल स्थान-विशेष ) में घोर अन्धकाररूपी कीचड़ ( दलदल भूमि) में शरण-रहित होकर धस रहा है, हाय ! महादुःख है / [ जिस प्रकार हाथीवान्के विना पर्वताकार विशाल हाथी यमुनाके दलदलमें धसकर पीडित होता है, उसी प्रकार ये नल तुम्हारे विरहसे निरन्तर होनेवाली पीडाओंसे मूर्छाजन्य अन्धकारमें डूब रहा है, यह महान् दुःख हैं ] // 113 // सव्यापसव्यव्यसनाद् द्विरुक्कैः पन्चेषुबाणैः पृथगजितासु / दशासु शेषा खलु तदशा या तया नभः पुष्प्यतु कोरकेण // 114 / / दशमावस्था तु तस्य कदापि माभूदित्यत आह-सव्येति / सव्यापसव्याभ्यां बामदक्षिणाभ्यां व्यसनान्मोचनात् द्विरुक्तद्विगुणीकृतैर्दशभिरित्यर्थः / पञ्चेषुबाणः 1. किलापेति' इति पाठन्तिरम् /