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________________ 638 नैषधमहाकाव्यम् / - स्वेति / द्विजिह्वो रसनाद्वयवान्, एष परम् एष वासुकिः एव, एकया रसनया जिह्वया, ईश्वरेन्दोः हरशिरश्चन्द्रस्य, अमृतम्, अन्यया रसनया, स्वदधरस्यापि रसम् अमृतं, धृत्वा युगपदास्वादयन् एतदुभयस्य एतस्य रसदयस्य, विशेषमन्तरं, निर्णेतुं यदि क्षमः समर्थः, स्यात् , नान्यः कश्चित् क्षमः इत्यर्थः / इन्द्वमृतादेतदधरा. मृतमेव ज्याय इति भावः // 19 // ___एक जिह्वासे शङ्करजीके चन्द्रमाके अमृतको तथा दूसरी जिह्वासे तुम्हारे अधर के रसको ग्रहणकर सम्यक् प्रकारसे एक साथ ही स्वाद लेता हुआ इन दोनों की उकृष्ट विशेषताका निर्णय करने के लिये यदि समर्थ हो सकता है तो यह वासुकि ही समर्थ हो सकता है / [राजाओं का चन्द्रामृत-पान करना असम्भव है, तथा देवोंका चन्द्रामृत पान करना सम्मव होनेपर भी दो जिह्वा नहीं होनेके कारण एक साथ चन्द्रामृत तथा तुम्हारे अधरका पान करना असम्भव है, किन्तु यह वासुकि दो जिह्वा होनेसे शिवमस्तकस्थ चन्द्र तथा तुम्हारे अधरके अमृतका एक साथ पान कर दोनों के तारतम्य (श्रेष्ठाश्रेष्ठत्व ) के निर्णय करने में यही समर्थ हो सकता है, अन्य राजा या देवता आदि नहीं // 19 // आशीविषेण रदनच्छददंशदानमेतेन ते पुनरनर्थतया न गण्यम् / बाधां विधातुमधरे हि न तावकीने पीयूषलारघटिते घटतेऽस्य शक्तिः॥ ___ आशीविषेणेति / आशीषि दंष्ट्रायां विषमस्येत्याशीविषः विषधरः, पृषोदरादि. स्वात् साधुः, 'स्त्री त्वाशीहिताशंसाऽहिदंष्ट्रयोः' इत्यमरः, तादृशेन, एतेन वासुकिना ते पुनः तव तु, रदनच्छदस्य अधरस्य, दंशदानं दंशनकरणम्, अनर्थतया न गण्यम् अपमृत्यवाद्यनिष्टहेतुत्वेन न मन्तव्यं, चुम्बने विषसञ्चारसम्भावनया एतद्वरणं न त्याज्यमिति भावः; कुतः? हि यस्मात् , पीयूषसारेण घटिते निर्मिते, तावकीने स्वदीये, अधरे बाधां दंशेन पीडां, विधातुम् अस्य दंशनस्य वासुकेर्वा, शक्तिन घटते न सम्भवति, अमृतघटितस्य कुतो विषभयमिति भावः // 20 // __ आशीविष ( तालुगत दांतमें विषवाले) इस ( वासुकि ) से अधरच्छेदन ( रतिकालमें अधरामृत पान करते समय काटना) को अनर्थकारक (मृत्युकारण ) मत मानों ( अर्थात् महाविषयुक्त यह वासुकि मेरे अधर में दंशन करेगा तो मेरो मृत्यु हो जायेगी ऐसी सम्भावना मत करो), क्योंकि अमृतके सारसे युक्त तुम्हारे अधर में बाधा पहुंचाने के लिये इस (वासुकि) की शक्ति नहीं चल सकती। [ अमृतमें विषका प्रभाव नहीं पड़नेसे वैसे अनर्थकी शङ्का मत करो] // 20 // तद्विस्फुरत्फणविलोकनभूतभीतेः कम्पञ्च वीक्ष्य पुलकञ्च ततोऽनु तस्याः। सातसात्विकविकारधियः स्वभृत्यान् नृत्यान्यषेधदुरगाधिपतिर्विलक्षः।। तदिति / ततोऽनु वाणीवाक्यानन्तरं, तस्य वासुकेः, विस्फुरतां स्फारयता, फणानां विलोकनेन भूतभीतेः सञ्जातसाध्वसायाः, तस्याः दमयन्त्याः, कम्पं वेपथु
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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