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________________ 254 नैषधमहाकाव्यम् / विचिति / अयि भैमि ! विधुविरोधितिथेः कुहास्याया नष्टेन्दुतिथेरभिधायिनी, तदभिधायककुहूशब्दोच्चारिणी 'कुहू कुह्नि'ति नामप्राहं तदाहायिनीमित्यर्थः / कोकिलां पुनः किं नेच्छसि / मा भूपचन्द्रः तद्विरोधिनीमेना कि नेच्छसीत्यर्थः / हे सखि ! अर्थगवेषणया कुहूशब्दस्य नष्टचन्द्रा तिथिरर्थः इति विचारेण किम् ? तत्साध्यं किमपि नास्तीत्यर्थः / गम्यमानसाधनक्रियापेच्या करणत्वात्ततीया / कुतः, सेयं कोकिला मयि विषये गवादिशब्दवदभिधेयवती न भवतीत्यर्थमयी, स्थघोषादिवदर्थशून्यस्वात् / किश, अनर्थमयी अशनिघोषवदापद्रपा च, ताम् / अनर्थशब्दा. न्मयटप्रत्ययः / गिरं किरति विधिपति // 17 // सखी-चन्द्र-विरोधिनी तिथि 'कुहू' (चन्द्रकलाका दर्शन जिसमें न हो वह अमा. वास्या तिथि) को कहने अर्थात् बुलानेवाली कोयल को तुम क्यों नहीं चाहती ? [ शत्रुभूत चन्द्रकी विरोधिनी कोयकको चाहना उचित है / दमयन्ती-हे सखि ! भर्थ के हूँढनेसे क्या लाम है ? अर्थात कुछ नहीं, क्योंकि यह कोयल मेरे विषय में (या पासमें ) अनर्थकारी बात ( 'कुहू' शब्दार्थ के प्रतिकूल वाणी ) कहती है / [ यह कोयल सचमुच 'कुहू' को नहीं बुलाती, अपितु अनर्थ ( अनिष्ट ) कारक (पक्षान्तर में-प्रतिकूलार्थक ) वाणी बोलने से धूर्त है। कोयलका कुहूंकना भी मुझे पीड़ित करता है ] // 1.7 // हृदय एव तवास्मि स वजमस्तदपि किं दमयन्ति ! विषीदसि ? / हृदि परं न बहिः खलु वर्तते. सखि ! यतस्तत एव विपद्यते // 108 / / हृदयं इति / हे दमयन्ति ! सा ते वनमः नलः तव हृदय एवास्ति वर्तते / सदपि तथापि किं विषीदसि खिचसे ? हे सखि ! यतो हृदि परं हृधेव वर्तते बहिर्न वर्तते खलु / तत एव विषयते विद्यते / सदेर्भावे लट / यतः स्मर्यत एव, न तु इश्यते; अतो मे विषाद इत्यर्थः // 108 // सली-हे दमयन्ती ! तुम्हारा प्रिय नल हृदयमें (अत्यन्त समीपमें ही है, तथापि क्यों विषाद करती हो ?) [भत्यन्त निकटवर्ती प्रियके रहने पर उसके लिए कोई भी विषाद नहीं करता है। दमयन्ती-क्योंकि वह प्रिय नल केवल हृदय में ही है, निश्चय ही बाहर नहीं है, इसी कारण विषाद करती हूं। [ अतिशय प्रिय नलके हृदयस्थ होनेसे उनका एकमात्र स्मरण ही होता है, दर्शन नहीं और परम प्रिय के विना दर्शन हुए स्मरणमात्र से किसी को पूर्ण हपं नहीं होता, यही मेरे विपाद का कारण है ] // 108 // स्फुटति हारमणौ मदनोष्मणा हृदयमप्यनलंकृतमद्य ते / सखि ! हतास्मि तदा यदि हृद्यपि प्रियतमः स मम व्यवधापितः // 106 / /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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