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________________ 278 नैषधमहाकाव्यम्। (निशाना ) बनी हुई अपनेको प्रकट करनेवाली वह ( दमयन्ती ) पिताके चित्तको भी स्वयंवरोत्सवके लिये भाग्यका सहायक बना दिया है। [दमयन्तीके पिताने उसके अङ्गों में पाण्डुता, दुर्बलता आदि विरहचिह्नोंको देख 'यह कामवाणपीडित हो रही है। यह समझ 'जैसा ब्रह्मा करेंगे वैसा होगा' यह विचारकर उसके स्वयंवरोत्सवकी तैयारी की है ] // 30 // मन्मथाय यथादित राज्ञां हूतिदूत्यविधये विधिराज्ञाम् / तेन तत्परवशाः पृथिवीशाः सङ्गरं गरमिवाकलयन्ति // 31 / / अस्तु राज्ञामनागमे किं कारणमुक्तं तत्राह-मन्मथायेति / अथ विधिविधाता, राज्ञा हुतिः स्वयंवरावानं, तदेव दूत्यं दूतकम / 'दूतस्य भागकर्मणी' इति यत्प्र. त्ययः / तस्य विधये करणाय मन्मयायाशामादेशमदित दत्तवानिति यत् / तेनाज्ञा. दानेन तत्परवशाः मम्मथपरतन्त्राः। शिवभागतवत्समासः / पृथितीशाः सङ्गरं गरमिवाकलयन्ति विमिव मन्यन्ते / 'विषं स्याद्रलं गरः' इति हलायुधः // 31 // इस ( दमयन्तीके स्वयंवर के लिये प्रेरित होने ) के बाद ब्रह्माने राजाभोंको भाह्वान (बुलाना) रूपी दूतकार्यके लिये मन्मथ ( मनको मथन करनेवाले ) कामदेवको माशा दी है, उस कारण उस मन्मथ ( कामदेव ) के पराधीन राजालोग युद्धको विषके समान मानते है / [ स्वयंवरका समाचार सुनकर कामके वशीभूत सब राजा वहां जानेकी तैयारीमें हैं, युद्ध करना कोई भी नहीं चाहता। जिस प्रकार एकके ही प्राणघातक विषको सेवन करना कोई साधारण वुद्धिवाला भी नहीं चाहता, उसी प्रकार अनेकों के प्राणघातक संगर (सम्यक गर- महाविष ) अर्थात युद्धको भी कोई राजा नहीं चाहता] // 31 // येषु येषु सरसा दमयन्ती भूषणेषु यदि वापि गुणेषु / तत्र तत्र कलयापि विशेषो यः स हि क्षितिभृतां पुरुषार्थः // 32 // येष्विति / किश, दमयन्ती, भूषणेषु हाराविषु, यदि वा, गुणेषु दयावाक्षिण्या. विषु वा, येषु येषु सरसा सामिलाषा, तत्र तत्र तेषु तेषु भूषणेषु गुणेषु च कल्या मात्रयापि यो विशेषः वितिभृतां स हि स एव / 'हि हेतायवधारणे' इत्यमरः / पुरुपार्थः प्रयोजनम, यथाकथखिझैमीमनोरअनमेव पुरुषार्थो न तु पात्रधर्मः सङ्गार इत्यर्थः // 32 // दमयन्ती जिन 2 भूषणों (हार, मुकुट केयूर आदि ) में अथवा गुणों शोभाविलास मादि पाठ पुरुष गुणों ( या उदारता-दया आदि गुणों ) में अनुराग करती है, उन उन (भूषणों या गुणों ) में (एक दूसरे की अपेक्षा) थोड़ी-सी भी विशेषता लाना ही राजाओंका पुरुषार्थ हो रहा है। [ पहले राजालोग जो युद्ध के लिये पुरुषार्थका संग्रह करते थे, वे अब दमयन्तीके प्रिय भूषणों तथा शोमा आदि गुणों के संग्रहमें दत्तचित्त है, अत एव युद्ध में पुरुषार्थ दिखाकर प्राणत्यागपूर्वक स्वर्गलाम करना कोई राजा नहीं चाहता है ] // 32 //
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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