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________________ 266 नैषधमहाकाव्यम् / मामणश्रेष्ठ नारदजी) को जो परिभूत ( तेजसे होन, पक्षान्तरमें-सन्तप्त) किया, तब इस कारणसे दिनराज ( चन्द्र, पक्षान्तरमें ब्राह्मणश्रेष्ठ नारदजी ) ने उस (सूर्य) को करों (किरणों, पक्षान्तरमें-अपने तेज ) से परिभूत ( तेजोहीन, पक्षान्तरमें-सन्तप्त ) किया। भाश्चर्य या खेद है-इस संसारमें अपने किये गये कर्म (के फल) को कौन नहीं भोगता ! मर्थात समी भोगते हैं / ( सूर्य के तापसे चन्द्रमाका निस्तेज होना सर्वप्रत्यक्ष है, अतः द्विजराज नारदजीने भी अपने तेजसे सूर्यको तपाया) अथवा-द्विजराज नारदजीको जो सूर्यने अपने किरणोंसे सन्तप्त किया, अत एव क्रुद्ध द्विजराज नारदीने भी उस सूर्यको सन्तप्त किया, इसी कारण नारदजीके माकाश में पहुंचनेपर सूर्य निस्तेज हो गये, जैसा पूर्व श्लोक में कहा गया है / [ नारदजीका तेज सूर्यके तेजसे भी अधिक था] // 6 // विष्टरं तटकुशालिभिरद्भिः पाद्यमय॑मथ कच्छरुहाभिः / पद्मवृन्दमधुभिर्मधुपक स्वर्गसिन्धुरदितातिथयेऽम्मै // 7 // विष्टरमिति / अथ स्वर्गसिन्धुर्मन्दाकिनी, अतिथये अस्मै नारदाय, तटकुशाना. मालिभिरावलिभिविष्टरमासनं, 'वृक्षासनयोविष्टरः' इति षत्वनिपातः, अभिः पाद्य पावार्य जलं, कच्छमहाभिर्जलप्रायभूग्युपश्चाभिलताभिः, अयम् अर्धार्थ पुष्पफलादि, 'पादाभ्याच' इति तादयं यत्प्रत्ययः। पनवृन्दाना मधुभिर्मकरन्दः, मधुपर्क अदित दत्तवती / दवातेलङि ता॥७॥ इसके बाद ( स्वर्गमें पहुंचनेपर ) मन्दाकिनी अर्थात स्वर्गगङ्गाने अतिथि इस नारदजी के लिये किनारेमें उत्पन्न कुशाओंसे आसन, जलसे पाद्य (पैर धोनेके लिए) जरू, अपने समीपकी जलप्राय भूमिकी दरोंसे मध्ये और कमलसमूहके मधु अर्थात् मकरन्दसे मधुपर्क दिया / [ अन्य सज्जन व्यक्ति भी अपने यहाँ आये हुये मतिथिके लिए प्रसन्न होकर मासन, पाथ, अयं और मधुपर्क देते हैं और वह मतिथि भी उनके मातिथ्यसे प्रसन्न होता है / मन्दाकिनी और नारदीको और नारदमी मन्दाकिनीको देखकर प्रसन्न हुए ]u. स व्यतीत्य वियदन्तरगाधं नाकनायकनिकेतनमाप / सम्प्रतीर्य भवसिन्धुमनादि' ब्रह्म शर्मभरचारु यतीव // 8 // स इति / स मुनिः, अगाध, वियदन्तनभोऽभ्यन्तरं व्यतीत्य, नाक नायकनिके. तनम् इन्द्रभवन, यती योगी, अनादि, भसि धुं संसाराब्धिम्, सम्प्रतीर्थ शम: मरचाह परमानन्दसुन्दरं, ब्रह्म परमात्मानमिव आप // 8 // - वह (नारदजी) बीच में अगाध (अपरिमित ) आकाशको पारकर देवराज इन्द्रके भवन (वैजयन्त नामक महल) को प्राप्त किये, जिस प्रकार योगी (या परमहंस) अनादि (प्रवाहसे युक्त ) संसारसागरको पारकर मानन्दातिशय रमणीय ब्रह्मको प्राप्त करता है / १.'-मनावि' इति पाठान्तरम् /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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