SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 398
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 329 षष्ठः सर्गः। मिलीयार, इन्द्रदूतीसम्बन्धिनी, कामिनोः सन्धात्री शम्भली / 'कुट्टनी शम्भली समे' इस्पमा भैम्यां विषये विज्ञप्ति वषयमाणं विज्ञापनम्, अन्तः समयः इन्द्रगौरवावणीकरिष्यतीति बिभ्यदेवेत्यर्थः / अत एव कृशाशः शिथिलभैमीप्राप्स्याशन सन् / भृशं सम्भावयामास ! अस्यवधानेन शुश्रावेत्यर्थः / विज्ञप्तिमिति किन् प्रत्यपान्तश्चिन्त्यः / “ण्यासश्रन्योयुष" इति तदपवादेन युचो विधानात् / अत एव "ज्ञप्तिविज्ञप्तिप्रभृतयोऽपशब्दषु परिगणिता भट्टपादः। तथाप्यभियुक्तप्रयोगो दुवारः // 76 // दमयन्तीकी समाके बीचमें दमयन्तीकी सखियोंके द्वारा अभिनन्दित की जाती हुई, इन्द्रकी दूती ( कुट्टिनी ) की विज्ञप्ति अर्थात् प्रार्थनाको मनमें भययुक्त तथा दमयंती-प्राप्तिकी कम आशा रखते हुए नलने सुना [ जब दमयन्ती को सभामें इन्द्रकी दूतीने दमयन्तीसे इन्द्रका सन्देश कहा, तब सखियोंने उसका अभिनन्दन किया-"जब देवराज इन्द्र भी तुम्हें वरण करना चाहते हैं तब उन्हें अवश्य वरण करना उचित है" ऐसा समर्थन किया, वह सुन नलके मनमें भय हो रहा था कि 'दमयन्ती सखियोंकी बातको तथा इन्द्रदूतीकी प्रार्थना को मानकर इन्द्रको ही वरण कर लेगी क्या ?' तथा इसी कारण दमयन्तीके पानेकी आशा छूट रही थी, ऐसे नलने इन्द्रदूतीकी प्रार्थना को सावधान होकर सुना] // 76 // लिपिन देवी सुपठा भुवीति तुभ्यं मयि प्रेषितवाचिकस्य / इन्द्रस्य दूत्यां रषय प्रसादं विज्ञापयन्त्यामवधानदानम् / / 77 // लिपिरिति // देवी लिपिदेवलिपिः / भुवि भूलोके, सुपठा पठितुं शक्या "ईष. दुः" इत्यादिना खलप्रत्ययः / नेति हेतोस्तुभ्यं, व्याहृतार्था वाग्वाचिकं, सन्देशवाक्यम् / 'सन्देशवाग्वाचिकं स्यात्' इत्यमरः / “वाचो व्याहृतार्थायाम्" इति ठक / तत्प्रेषितं येन तस्य इन्द्रस्य दूत्यां मयि विज्ञापयन्त्याम् / अवधानस्यैकाग्रयस्य दानमेव प्रसादं रचय अनुग्रहं कुरु // 77 // पृथ्वीपर देव-लिपि नहीं पढ़ी जा सकती' इस कारण तुम्हारे लिये सन्देश भेजनेवाले इन्द्रका सन्देश सुनाती हुई इन्द्रकी दूती ( मुझ ) पर अवधान-दानरूप प्रसाद करो ( सावधान होकर मेरो बात सुनने की कृपा करो) / [ यदि मर्त्यलोकवासी देवताओं का लेख पढ़ सकते तो इन्द्र स्वयं पत्र लिखकर तुम्हारे समीप भेजते, किन्तु बैसा करनेमें मनुष्यों के असमर्थ होने के कारण ही इन्द्रने तुम्हारे पास स्वयं पत्र न लिखकर अपना सन्देश कहने के लिये मुझे भेजा है, अतः सावधान होकर इन्द्रका सन्देश सुनो / अथवा-'भाग्यमें क्या लिखा है' यह कोई मर्त्यलोकवासी नहीं पढ़ सकता, किन्तु देवता पढ़ सकते हैं, अतः देवराज इन्द्र के जिस सन्देशको मैं कह रही हूँ उसे तुम सुनो] // 77 // सलीलमालिङ्गनयोपपीडमनामयं पृच्छति वासवस्त्वाम् / शेषस्त्वदाश्लेषकथाविनिद्रैस्तद्रोमभिः सन्दिदिशे भवत्यै // 78 / / सलीलमिति // हे भैमि, वासवस्त्वां सलीलं सविलासम्, आलिङ्गनया आलि.
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy