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________________ 464 नैषधमहाकाव्यम् यदि स्वमुन्धुमना बिना नलं भवेभवन्ती हरिरन्तरिक्षगाम् / दिविस्थितानां प्रथितः पतिस्ततो हरिष्यति न्याय्यमुपेक्षते हि कः // 46 / / ___ अथ यदुक्कं नलालाभे हुताशनोद्वन्धनादिना मरिष्यामीति तत्रोत्तरमाहयदीत्यादिना चतुष्टयेन / हे मुग्धे ! नलं विना नलालाभे स्वमात्मानमुद्धन्धुं मनो यस्याः सा उद्वन्धुमनाः पाशेन मर्तुकामा। "तुं कामभनसोरपि" इति मकारलोपः। भवेर्यदि स्याश्चेत् ततोऽन्तरिक्षगां भवती दुर्मरणदोषादन्तरिक्षगतां सती स्वामिति शेषः। दिविस्थितानामन्तरिक्षगतानां स्वर्गतानां च प्रथितः पतिः प्रसिद्धः स्वामी हरिरिन्द्रो हरिष्यति ग्रहीष्यति जन्मान्तरेऽपि त्वां न त्यच्यतीत्यर्थः / तथा हिन्याय्यं न्यायप्राप्तं वस्तु क उपेक्षते न कोऽपीत्यर्थान्तरन्यासः / अस्वामिकद्रव्यस्य राजगामित्वं न्याय्यमिति भावः॥ 46 // ( अब दूत नल पूर्व ( 5.35 ) श्लोकोक्त दमयन्तीके वचन का खण्डन क्रमशः चार श्लोकों ( 5 / 46-49 ) में कर रहे हैं-यदि तुम नलके विना अपनेको बाँधनेकी ( शाखा आदिमें बांधकर मरने) की इच्छा करती हो तो अन्तरिक्ष जाती हुई तुमको स्वर्ग का स्वामी (इन्द्र ) वहां से अर्थात् अन्तरिक्षसे हरण कर लेंगे, न्याययुक्त वस्तु की कौन उपेक्षा करता है ? [आत्महत्या कर जब तुम अन्तरिक्ष में जाने लगोगी तब तुम्हें स्वर्गपति इन्द्र ग्रहण कर लेंगे, क्योंकि 'विना स्वामीकी वस्तु जिस राजाके राज्यमें जाती है, वह उस राज्यको स्वामी की हो जाती है। इस प्रकारसे भी इन्द्र तुम्हें प्राप्त कर लेंगे, और इन्द्रका वह कार्य न्यायसंगत होगा अतः तुम स्वयं ही इन्द्रको वरण कर लो] // 46 // निवेक्ष्यसे यद्यनले नलोज्झिता सुरे तदस्मिन्महती 'दयाहता। चिरादनेनार्थनयापि दुर्लभं स्वयं त्वयेवाम ! यदङ्गमयते // 47 // निवेच्यस इति / हे मुग्धे! नलेनोज्झिता सती अनले निवेक्ष्यसे यदि जीवितनैस्पृहादग्नि प्रवेश्यसि चेदित्यर्थः / आधारत्वविवक्षया सप्तमी "नेविंश" इत्यात्मनेपदम् / तत् तर्हि अस्मिन्ननले अनलाख्ये सुरेऽपि तदधिष्टातरि देवे च भूतमात्र इति भावः। महती दया आहता कृता स्वीकृतेत्यर्थः। कुतः यद्यस्मादनेनानलेन चिरादर्थनया याच्यापि दुर्लभमङ्गं शरीरम्, अङ्ग! अयि ! त्वयैव स्वयमात्मनैव अयंते दीयते तथा स स्फुटतममेव जीवग्राहं ग्रहीष्यतीति भावः / अत्र नलालाभे जीवितजिहासोरनलग्रहणबुद्धिरूपानर्थोक्तेविषमभेदः / 'विरुद्धकार्यस्योत्पत्तिर्यत्रानर्थस्य वा भवेत् / विरूपघटना चासो विषमालकृतिस्निधेति" लक्षणात् // 47 // यदि नलसे त्यक्त ( नलले अविवाहित ) तुम अनल ( अग्नि, पक्षा०-नलभिन्न ) में नियुक्त होओगी अर्थात् अग्निमें प्रवेश करोगी, तब इस देव अर्थात् अग्नि पर तुमने वड़ी दया का आदर किया अर्थात् दया की ( पाठा०-दया धारण की; क्योंकि ) चिर कालसे 1. "दया कृता" इति, “दया ता" इति च पाठान्तरम् /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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