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________________ 574 नैषधमहाकाव्यम् / शृङ्गारभङ्गीषु रतिभावविजम्भणेषु येऽनुभावाः कटाक्षविक्षेपादयस्तद्वत्सु / 'शृङ्गारभङ्गीष्वनुभाववद्भिरिति पाठे शृङ्गारचेष्टाः प्रकाशयद्भिरित्यर्थः। तैर्दिगन्तागतैर्वी रैः स्वयंवरस्थानभूतो जनाश्रयो मण्डपः / 'मण्डपोऽस्त्री जनाश्रयः' इत्यमरः। अलमकारि अलंकृतम् / स्वयंवरस्थान प्राप्तमित्यर्थः // 37 // विदर्भराज (भीम) के दूतोंके द्वारा विनयपूर्वक बुलाये गये (सूचित) शृङ्गार चेष्टाओंमें अनुभाव युक्त ( पाठा०-अनुमाव कराते हुए, अनुभाववाले, अनुभावके ज्ञाता) वे वीर स्वयंवर में आये हुए राजा लोग स्वयंवरमण्डपको अलकृत किये अर्थात् स्वयंवरके मण्डप में पहुंचे // 37 // भूषाभिरुच्चैरपि संस्कृते यं वीक्ष्याकृत प्राकृतबुद्धिमेव / प्रसूनबाणे विबुधाधिनाथस्तेनाथ साशोभि सभा नलेन // 38 // भूषेति / विबुधाधिनाथ इन्द्रो यं नलं वीक्ष्य भूषाभिभूषणैरतिशयेन संस्कृतेऽलंकृ. तेऽपि, 'सम्परिभ्यां करोती भूषणे'इति सुडागमः। प्रसूनबाणे मन्मथे प्राकृतबुद्धिं पृथ. ग्जनबुद्धिमेव / नीचबुद्धिमेवेत्यर्थः, 'प्राकृतस्तु पृथग्जनः' इत्यमरः / अकृत कृतवान्, न तु सुन्दरबुद्विमित्यर्थः / कृतः कर्तरि लुङि तङ / 'हस्वादङ्गादिति सिचो लोपः / अथ राजागमनानन्तरं तेन नलेन सा सभा अशोभि / शोभां गमिता अलकृते. त्यर्थः / शोभयतेः कर्मणि लुङ्गीविबुधाधिनाथः पण्डितश्रेष्ठः सन्नपि संस्कृते प्राकृतबुद्धिं संस्कृतभाषिते प्राकृतभाषितत्वबुद्धिमकृतेति विरोधाभासः सूच्यते // 38 // विबुधराज ( देवों के स्वामी इन्द्र, पक्षा०-विशिष्ट जाननेवालों के स्वामी अर्थात् महाविशेषज्ञ ) इन्द्रने जिसको देखकर श्रेष्ठ भूषणोंसे अलङ्कृत भी कामदेवको साधारण ही माना, इस नलने उस सभाको बादमें सुशोभित किया। [ पहले सब राजा लोग तथा देवों के स्वयंवर मण्डप में जानेके बाद नल भी पहुंचे। उन्हें देखकर विशिष्ट जाननेवाल के राजा अर्थात् श्रेष्ठ विशेषज्ञ इन्द्र बहुमूल्य भूषणों से अलकृत कामदेवको भी नलसे तुच्छ समझा / विबुधराज पण्डितश्रष्ठ होकर भी 'संस्कृत (देववाणी ) को प्राकृत समझा' यह विरोधाभास है तथा पूर्वोक्त अर्थ (अलकृत कामदेवको तुच्छ समझा) से उसका परिहार होता है ] // 38 // धृताङ्गरागे कलिताशोभा तस्मिन् सभा चुम्बति राजचन्द्रे / गता बताक्ष्णोर्विषयं विलङ्घ य क क्षत्रनक्षत्रकुलस्य लक्ष्मीः // 39 // तेति / पृतोऽङ्गरागोऽनुलेपनमेवाङ्गरागः अङ्गस्य चन्द्रविम्बस्य, रागो रक्तता येन तस्मिन् , राजचन्द्रेनले कलितद्यशोमां कलिता प्राप्ता, यशोभा स्वर्गीयशोभा आकाशशोभा च यया तां, सभा चुम्बति प्राप्ते सति, क्षत्राणि क्षत्रिया एव, नक्षत्राणि तत्कुलस्य लचमीरणोर्विषयं विलय दृष्टिपथमतीत्य, क कुत्र, गता? बतेत्याश्चर्ये; 1. 'कान्तिः' इति पाठान्तरम् /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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