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________________ दशमः सर्गः। नक्षत्रकुलमिव नलोदये सर्व क्षत्रकुलं निष्प्रभं जातमित्यर्थः / धुशोभेत्यत्र शोभेव शोभेति सादृश्याक्षेपात् निदर्शना, तया सहाङ्गाङ्गिभावेन रूपकस्य सङ्करः // 39 // अङ्गराग ( कुङ्कुम आदिका शरीरलेप, पक्षा०-अपने बिम्बरूप शरीर में लालिमा ) को धारण किये हुए उस राजचन्द्र ( राजाओंमें चन्द्रमाके समान नल, पक्षा०-राजा नल) रूप चन्द्रमाके स्वर्गकी शोभाको प्राप्त (अथवा-स्वर्गको शोभित करनेवाली) सभा (स्वयंवर सभा) को प्राप्त करने पर क्षत्रियरूप नक्षत्रों ( अथवा-क्षत्रियों और अक्षत्रियों अर्थात् देवताओं) की शोभा नेत्र विषयका उल्लङ्घनकर कहां चली गयी ? अर्थात् कहां अदृष्ट हो गयी, खेद है ! [ जिस प्रकार चन्द्रमाके आकाशमें उदय होते ही नक्षत्रों ( ताराओं) की कान्ति नष्ट हो जाती है अर्थात् वे चन्द्रमाके सामने फीके पड़ जाते हैं, उसी प्रकार स्वयंवर मण्डपमें नलके पहुँचते ही क्षत्रिय राजा (तथा देवों) की शोभा नष्ट हो गयी अर्थात् इतने अधिक सुन्दर नलको छोड़कर दमयन्ती हमलोगोंको नहीं वरण करेगी यह विचारकर अन्य राजाओं ( तथा देवों ) का मुख फीका पड़ गया ] // 39 // 'प्राक् दृष्टयः क्षोणिभुजाममुष्मिन्नाश्चर्यपर्युत्सुकिता निपेतुः / अनन्तरं दन्तुरितभ्रुवान्तु नितान्तमोर्ध्याकलुषा गन्ताः // 40 // प्रागिति / प्राक् पूर्वम् , अमुष्मिनले, क्षोणीभुजां राज्ञां, दृष्टयः पूर्णदृष्टयः, आश्चयेण विस्मयपारवश्येन, पर्युरसुकिताः उत्कण्ठिताः सत्यः, निपेतुः, अनन्तरं तु दन्तु. रितभ्रुवां द्वेषाद्विषमितभ्रुवां, हगन्ताः कोणदृष्टयः, नितान्तमीjया कलुषाः सन्तो निपेतुः / अत्रौत्सुक्येयप्रियुक्तानां पूर्णापूर्णदृष्टीनां द्वयीनां क्रमेणैकस्मिन्नाले निपतनोतेर्द्वितीयः पर्यायभेदः / एकमनेकस्मिन् अनेकमेकस्मिन् वा क्रमेण पर्याय इति सूत्र. णात् तथौत्सुक्येालक्षणविस्मयद्वेषसञ्चारिभावनिबन्धनात् भावालङ्कारः प्रियो ऽपरपर्याय इति द्वयोः संसृष्टिः // 40 // (नलके अत्यन्त सुन्दर होने से ) आश्चर्य से उत्कण्ठित, राजाओंकी दृष्टि उस नलपर पहले ( पाठा०-शीघ्र ) गिरी और बादमें कुटिल भ्रूवाले ( उन राजाओं) के अत्यधिक ईर्ष्यासे कलुषित नेत्रप्रान्त अर्थात् अपूर्ण दृष्टि ( उन नलपर ) गिरी। [ अथवा-इसके बाद कुटिल भ्रवाली स्त्रियों के अत्यन्त ईर्ष्यासे अर्थात् 'मैं पहले देखू' इस प्रकारकी अहमहमिकासे कलुषित कटाक्ष बादमें गिरे अर्थात् राजाओंके देखनेके बाद खियोंने नलको कटाक्षपूर्वक देखा / नलके सभामें आते ही अत्यन्त सुन्दर होनेसे उनको राजाओंने आश्चर्यित हो पहले उत्कण्ठासे देखा और 'इतने अधिक सुन्दर नलको छोड़कर दमयन्ती हम लोगोंको नहीं वरण करेगी' ऐसा विचार करते ही बादमें ईर्ष्यासे मलिन दृष्टि प्रान्तसे देखा / ईकिलुषित दृष्टिका पूर्ण रूपसे नहीं देखना स्वभावसिद्ध है ] // 40 // 1. 'द्राक्' इति पाठान्तरम् /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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