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________________ 660 नैषधमहाकाव्यम् / मुदे आनन्दाय, उदेतु ? उत्पद्यताम् ? ते इति शेषः, न किञ्चिदन्यदित्यर्थः / सम्भावनायां लोट् , भूलोकवासिनां मृतानां स्वर्गः, स्वर्गवासिनान्तु मृतानाम् अपवर्ग एव परं पदं, न तु स्वर्ग एवोचितः, अतः सा काशी स्वर्ग एव इति भावः॥ __ वाराणसी पृथ्वीपर नहीं स्थित है (या पृथ्वीमें अन्तर्भूत नहीं हैं) वहाँपर निवास करना देवलोक (स्वर्ग) में निवास करना है अर्थात् वाराणसी स्वर्ग ही है भूमिगत कोई पुरी नहीं है, ( अथवा-वहाँ देवोंका निवास करना भूलोकमें निवास करना है, अर्थात् स्वर्गसे भी अधिक रमणीय होनेसे देवलोग स्वर्गसे वहाँ वाराणसी पुरीमें ) आकर निवास करते हैं। इसी कारण उस (वाराणसी) के तीर्थों ( मणिकणिका आदि ) में शरीरत्याग करने ( मरने) वालों की मुक्ति होती है, ( यदि वाराणसी भी अन्य पुरियोंके समान भूमिपर ही होती तथा वहाँ निवास करना स्वर्गमें निवास करना नहीं होता तो उसके तीर्थमें भी मरनेवाले प्राणियोंको अन्य पुरियों के तीर्थों में मरनेवाले प्राणियों के समान स्वर्ग-प्राप्ति ही होती, मुक्तिप्राप्ति नहीं होती, अतएव वहाँ निवास करना स्वर्गमें ही निवास करना है ), स्वर्गसे श्रेष्ठ भी ( मुक्ति के अतिरिक्त ) पद हर्षके लिये प्राप्त होवे ( भूलोकमें मरनेवाले प्राणियों के हर्षके लिए भूलोकाधिक श्रेष्ठ स्वर्ग-प्राप्ति होना और वाराणसीरूप स्वर्गमें मरनेवाले प्राणिके हर्षके लिए स्वर्गाधिक मुक्ति-प्राप्ति होना उचित ही है ) // 116 / / सायुज्यमृच्छति भवस्य भवाब्धियादस्तां पत्युरेत्य नगरी नगराजपुत्र्याः। भूताभिधानपटुमद्यतनीमवाप्य भीमोद्भवे ! भवतिभावमिवास्तिधातुः॥ ____ सायुज्यमिति / भीमोद्भवे ! हे भैमि ! भवाब्धियादः संसारसागरजजन्तुजातं, कत। 'यादांसि जलजन्तवः' इत्यमरः / नगराजपुत्र्याः पत्युः पार्वतीपतेः सम्ब. धिनी, तां नगरी काशीम् , एत्य अस्तिधातुः 'अस भुवि' इत्ययं धातुः, भूताभिधानपटुम् अतीतकालाभिधानसमाम् , अन्यत्र-भूतस्य सत्यस्य तारकब्रह्मरूपस्येत्यर्थः, अभिधाने उपदेशप्रापणे, पटुं समर्थाम्, इति नगरीपक्षे योज्यम् ; अद्यतनों लुङम् , अवाप्य अद्यतनीति लुङ् पूर्वाचार्याणां संज्ञा आर्द्धधातुकोषलक्षणमेतत् , अस्तेभूभावस्या धातुकाधिकारात् / अद्यतनीग्रहणन्तु उपमानोपमेययोरभिन्नलिङ्गस्वायेति द्रष्टव्यम् / भवतीति भावम् इव 'अस्तेर्भूः' इति विधानात् अस्-धातो . धातुस्वमिव, भवस्य ईश्वरस्य, सयुजो भावः सायुज्यं तादात्म्यं, ऋच्छति गच्छति // ___ हे भीमनन्दिनि ( दमयन्ति ) ! संसाररूपी समुद्रका जलजन्तु अर्थात् संसारी जीव पर्वतराजपुत्री ( पार्वती ) के पति शिवजीकी तारक ब्रह्म के उपदेशमें समर्थ उस नगरी ( वाराणसी पुरी) को पाकर ( अथवा-उस नगरीको पाकर पर्वतराजपुत्रीके पति शिवजी) के सायुज्यको उस प्रकार प्राप्त करता है, जिस प्रकार 'अस' धातु ('अस् भुवि'-अदादि परस्मैपदसंशक धातु ) 'भूत' कालके कहने में समर्थ अद्यतन विभक्ति ( 'लुङ' लकार ) को प्राप्तकर 'भू' भाव ( 'अस्तेर्भूः पा० 2 / 4 / 52 ) से 'भू' आदेश को प्राप्त करता है।
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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