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________________ 105 तृतीयः सर्गः। हे हंसवंशके भूषण ? नलसे क्रोधसे हृदयके कुछ गर्भ रहनेपर मेरे किए बातको मत कहना, क्योंकि पित्तसे जीभके दूषित होनेपर शक्कर भी तीता लगता है // 94 / / धरातुरासाहि मदर्थयाचा कार्या न कार्यान्तरचुम्बिचित्ते / तदाऽर्थितस्यानवबोधनिद्रा बिभर्त्यवज्ञाचरणस्य मुद्राम् // 15 // धरेति / तुरं त्वरितं सहयत्यभिभवत्यरीनिति तुराषाडिन्द्रःसहतेश्चौरादिकत्वात् क्विप, 'नहिवृती'त्यादिना पूर्वपदस्य दीर्घः, प्रकृतिग्रहणे ण्यन्तस्यापि ग्रहणात्, मुग्ध भोजस्तु तुराशब्दं टावन्तमाह। तस्मिन् धरातुरासाहि भूदेवेन्द्र नले अजादिषु असा पत्वात् 'सहेः साडः स'इति षत्वं नास्ति / कार्यान्तरचुम्बिचित्ते व्यासक्तचित्ते मदर्थयाञ्चा मत्प्रयोजनप्रार्थना न कार्या। तथाहि-तदा व्यासङ्गकाले अथितस्य अनवबोधः अबोधः स एव निद्रा सा अवज्ञाऽऽचरणस्य अनादरकरणस्य मुद्रामभिझानं बिभर्ति, अनादरप्रतीति करोतीत्यर्थः / तच्चातिकष्टमिति भावः // 95 // राजा ( नल ) के चित्तके दूसरे कार्यमें आसक्त रहनेपर तुम मेरे लिए प्रार्थना मत करना क्योंकि कार्यान्तरमें चित्तके आसक्त रहने पर याचित विषयको यहीं सुनना अपमान करने ( या-अभीष्ट नहीं होने ) के रूपको ग्रहण कर लेता है / [ कार्यान्तर में चित्तके आसक्त रहने के कारण यदि व्यक्ति किसीकी याचनाको नहीं सुननेके कारण उसके विषयमें कोई उत्तर नहीं देता तो प्रार्थयिता समझता है कि इनको यह बात नहीं रुचती, और ऐसा समझ पुनः उस विषयमें उस व्यक्तिसे प्रार्थना करना भी नहीं चाहता] // 95 / / विज्ञेन विज्ञाप्यमिदं नरेन्द्र तस्मात्त्वयाऽस्मिन् समयं समीक्ष्य / आत्यन्तिकासिद्धिविलम्बसिध्योः कार्यस्य काऽऽर्यस्य शुभा विभाति ? ||16|| विशेनेति / तस्मात् करणाद् विज्ञेन विवेकिना त्वया समयं समीक्ष्य इदं कार्यमस्मिन् नले विषये विज्ञाप्यम् / विलम्बः स्यादित्याशङ्कयाह-आत्यन्तिकेति / हे हंस ! कार्यस्य आत्यन्तिकासिद्धिबिलम्बसिद्धयोमध्ये आर्यस्य विदुषस्ते का कतरा शुभा समीचीना विभाति ? अनवसरविज्ञापने कार्यविधाताद्वरं बिलम्बनेनापि कार्य साधनमिति भावः // 96 // इस कारणसे विद्वान् आप इस राजा ( नल ) से अवसर देखकर इस बिषयमें प्रार्थना करना / आपको कार्यकी सिद्धि सर्वथा नहीं होने में तथा विलम्बसे सिद्धि होने में कौन-सी उत्तम मालूम एड़ती है ? अर्थात् सर्वथा असिद्धि होनेसे विलम्बसे सिद्धि होना ही उत्तम है / / इत्युक्तवत्या यदलोपि लज्जा साऽनौचिती चेतसि नश्वकास्तु / स्मरस्तु साक्षी तददोषतायामुन्माद्य यस्तत्तदवीवदत्ताम || 17 // इतीति / इत्थमुक्तवत्या तया लजा अलोपि त्यक्तेति यत् / सा, विधेयप्राधान्यात् स्त्रीलिङ्गता, अनौचिती अनौचित्यङ्गतमेतत् नोऽस्माकं शृण्वतां चेतसि चकास्तु। किन्तु लज्जात्यागस्य अदोषतायां स्मरः साक्षी प्रमाणं, यः स्मरः तां भैमीमुन्माद्य 12 नै०
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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