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________________ 236 नैषधमहाकाव्यम्। उचित नहीं। 'एक समय माताकी दासताको छुडाने के लिये स्वर्गसे अमृत कोनेको माते हुए गरुडसे कश्यपने कहा था कि मार्ग में ब्राह्मणों को छोड़कर बो जीव मिले उसे खा सकते हो, किन्तु निसको मुख में लेने पर गले में दाइ हो उसे ब्राह्मण समझकर छोड़ देना' इस भादेशानुसार मार्गमें समुद्रतटपर निषादों में रहने वाले निषादाकृति ब्राह्मणको गरुड़ने निषाद के भ्रमसे मुखमें डाला, परन्तु गलेमें दाह होने लगा तो उसे उगल दिया' यह पौराणिक कथा है / / 71 // सकलया कलया किल दंष्ट्रया समवधाय यमाय विनिर्मितः / विरहिणीगणचर्वणसाधनं विधुरतो द्विजराज इति श्रुतः / / 72 / / सकलयेति / विधुः सकलया कलया सकलाभिः, कलाभिरेव बंष्ट्रया दंष्ट्रामिः, दन्तविशेषैः प्रकृतिद्रव्येण / उभयत्र जास्येकवचनम् / यमाय अन्त कार्य समवधाय सम्यगवाहितीभूय, विरहिणीगणस्य चर्वणसाधनं किशिक्षणसाधनं विनिर्मितः, किल ब्रह्मणेति शेषः / अतोऽस्माइंष्ट्राविशेषस्वाद 'विजराज' इति श्रतः, न तु विप्रकि. शेषस्वादिस्यर्थः / दन्तविप्रायजा द्विजा' इत्यमरः / अतो नायमुपेक्ष्य इति भावः // यह चन्द्रमा यमराजके लिये सावधान होकर (ब्रह्माके द्वारा) सम्पूर्ण कलारूपी दांतोंसे विरहिणीसमूहको चबानेका साधन बनाया गया है, अतएव यह द्विजराज ( द्विजों अर्थात दांतोंसे शोभनेवाला) कहा गया है / [ब्राह्मणों में शोमनेवाला या श्रेष्ठ होनेसे द्विजराज नहीं कहा गया है, अतः ब्राह्मण न होनेसे इसे मारनेमें राहुको कोई पाप नहीं. इस कारण इसे मार ही डालना उचित है // अन्य लोगोंको भी चना आदि चबाने के लिए सब दांतों को दृढ़ रहना आवश्यक होता है ] // 72 // स्मरमुखं हरनेत्रहुताशनाज्ज्वलदिदं विधिना चकृषे विधुः / बहुविधेन वियोगिवर्धनसा शशमिषादथ कालिकयाट्टितः // 73 // स्मरमुखमिति / अथ विधुश्चन्द्रो नामेदं स्मरमुखं ज्वलत् प्रज्वलदेव विधिना देवेन हरनेबहुताशनाचकृषे मध्ये आकृष्टः / अथवा बहुविधेन वियोगिवधेन यदेनः पापं, तेनैव कालिकया श्यामिकया, शशमिषादङ्कितः / दाहकालिमा वा, पापका लिमा वा शशमिषाद् एश्यत इति सापह्नवोस्प्रेक्षादयम् // 73 // ब्रह्माने शिवजीके नेत्रकी अग्निसे, अलते हुए इस चन्द्ररूप काम-मुखको खींच लिया, फिर बियोगिजनों के वधजन्य अनेक प्रकारके पापके कारण उसे शशकके बहाने से कालिका अर्थात् कालिखसे चिह्नित कर दिया। [ अन्य भी व्यक्ति अग्नि में जलते हुए किसी मनुष्यको बचाने के लिये भग्निसे खींचकर निकालता है, यदि वह अच्छा (उपकारक) होता है तो उसे रख लेता है, अन्यथा यदि वह दूसरों के लिए हानिकारक होता है तब उसके मुख में कालिख पोतकर उसे बाहर निकाल देता है तथा अधजली वस्तुमें भी कालिख लगी रहती है] 17 //
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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