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________________ चतुर्थः सर्गः 235 द्विजराज (ब्राह्मणोंमें श्रेष्ठ, पक्षान्तरमें-चन्द्रमा) को बुद्धिसे अर्थात ब्राह्मण श्रेष्ठ ( पक्षान्तर में। चन्द्रमा) समझकर शत्रुभूत इस चन्द्रमाको (ब्राह्मणको नहीं मारना चाहिये, एतदर्थक अतिको स्मरणकर) छोड़ते हो क्या, फिर यदि यह ऐसा अर्थात् ब्राह्मण-श्रेष्ठ होता तो वारुणी ( मदिरा, पक्षान्तरमें-पश्चिम दिशा ) का सेवनकर अर्थात् मदिरा पीकर ( पक्षा. न्तरमें-सायंकाल में पश्चिमकी ओर जाकर ) पतित ( मदिरा सेवनजन्य महापात कसे युक्त, पक्षान्तरमें समुद्र में गिरा ) हुआ फिर स्वर्ग ( पक्षान्तरमें-माकाश ) में क्यों भाता ? अर्थात् नहीं आता। [ 'द्विजराज' शब्दका ब्राह्मण या ब्राह्मण-श्रेष्ठ और चन्द्रमा-दोनों अर्थ है / ब्राह्मण-हत्याका वेदमे निषेध जानकर शत्रुभूत चन्द्रमाको भी ब्राह्मण-श्रेष्ठ समझकर छोड़ देना राहुको ठोक नहीं, क्योंकि जो ब्राह्मण मदिराका सेवन करता है वह पतित हो जाता है तथा फिर स्वर्ग पानेका अधिकारी नहीं रहता, किन्तु वारुगी अर्थात् पश्चिम दिशाका सेवनकर सायंकालमें पश्चिम समुद्र में गिरकर पुन प्रातःकाल उदित होता है, अतः यह ब्राह्मण है ही नहीं या ब्राह्मण है मी तो पतित ब्राह्मण है, अतः शत्रुभूत इस (चन्द्रको तुम अवश्य मारो, इससे हमलोगों की पीडा शान्त हो जायेगी ] // 70 // दहति कण्ठमयं खलु तेन किं गरुडवद् द्विजवासनयोज्झितः ? / प्रकृतिरस्य विधुन्तुद ! दाहिका मयि निरागसि का वद विप्रता?||७१।। वहतीति / हे विधुन्तुद ! अयं विधुः द्विजवासनया द्विजस्वसामान्येनेत्यर्थः / पातित्येऽपि जातेरनपायादिति भावः / गरुडवद् गरुडस्येव 'तत्र तस्येव' इति वति. प्रत्ययः / ते तव कण्ठं दहति खलु / विधुः तेन दाहेनोज्झितः किम् ? अस्य विप्रता का वद, न कापीत्यर्थः / तथा हि, अस्य विधोः प्रकृतिः निरागसि निरपराधायां मयि दाहिका दग्ध्री / अनपराधस्त्रीघातुकस्य कुतो ब्राह्मणस्वमित्यर्थः। 'आगोऽप. राघो मन्तुश्च' इत्यमरः / पुरा किल क्षुधितेन गहस्मता पित्रादेशेन म्लेच्छान् भक्ष. यता तन्मिलितः भ्रष्टद्विजः कश्चित् तदग्धगलेन सहसोद्गीण इति पौराणिकी कथा। तथा माघवाह-'विप्रं पुरा पतगराडिव निजंगार' इति // 71 // (अथवा ) यह चन्द्रमा ( खानेपर ) तुम्हारे कण्ठको जलाता है, अतः ब्राह्मण समझ. कर गरुड़के समान इसको छोड़ देते हो क्या / ( यह ठीक नहीं, क्योंकि ) इसका स्वभाव ही दाहक (जलानेवाला) है, ( तुम्ही बतलाओ कि ) मुझ निरपराधिनी में क्या ब्राह्मणत्व है ( जो मुझे जला रहा है ) / ब्राह्मण अपराधीको शापके द्वारा जलाता है, निरपराधीउसमें भी दुखिया स्त्रोको नहीं, किन्तु जिस प्रकार यह मुझ निरपराधिनीको अपने स्वभाव. से ही जलाता है ब्राह्मणस्वके कारण नहीं; उसी प्रकार मुखमें लेने पर तुमको भी स्वभावसे ही अलाता है, अपने ब्राह्मणत्व के कारण नहीं, अब इस चन्द्रमाको खाना ही तुम्हारे लिए उचित है, गरुडके समान कण्ठ में दाह होनेमात्रप्ते चन्द्रमाको ब्राह्मण समझकर छोड़ना
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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