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________________ . . दशमः सर्गः। . धातोः कर्तरि क्तः, मध्ये मध्यदेशे, त्रिबलीविलासो बलिन्नयशोभा यस्याः, सा, जाता इति शेषः, अतो नूनं तुलितेत्यर्थः // 128 // यह ( दमयन्ती) नितम्ब देशमें भारी है या स्तनद्वय में भारी है, इसकी परीक्षाके लिये ब्रह्माके हाथने उठाकर तौला है क्या ?, उससे ( चार अङ्गुलियों ) के मध्यगत तीन भागोंसे उत्पन्न मध्यमें त्रिवलियों के विलासवाली यह दमयन्ती हो गयी है। ['नितम्बदेश तथा स्तनद्वयमें कौन-सा भारी है' इस परीक्षा के लिये उत्तानित हस्ततलकी चारों अङ्गुलिवों पर ब्रह्माने दमयन्तीको रखकर तौला, उन्हीं चारों अङ्गुलियों के मध्यगत तीन भागोंसे दमयन्ती की त्रिवलि बन गयी। दमयन्ती विशाल नितम्ब तथा स्तनोंवाली एवं सुम्दर त्रिवलि. वाली है ] / / 128 // * निजामृतोद्यन्नवनीतजाङ्गीमेतां क्रमोन्मीलितपीतिमानम् / कृत्वेन्दुरस्या मुखमात्मनाऽभून्निद्रालुना दुर्घटमम्बुजेन // 129 // निजेति / इन्दुः निजम् आत्मीयम् , अमृतं पीयूषं, क्षीरदध्यादिगोरसश्च, 'अमृतं थ्योग्नि देवान्मे मोक्षे हेम्नि च गोरसे' इति वैजयन्ती, तस्मात् उद्यत् उत्पद्यमानं, नवनीतं दधिसारः, 'दधिसारो नवनीतम्' इति हलायुधः, तज्जमङ्गं यस्यास्ताम्, अत एव क्रमोन्मीलित पीतिमानं नवनीतवदेव क्रमाविर्भूतपीतवर्णाम् , एतां भैमी, कृत्वा निर्माय, निद्रालुना रात्रौ निमीलनशीलेन, अथ च अलसेन, अम्बुजेन पझेन, अस्या मुखं, दुर्घटं साधु न साध्य, विविच्य इति शेषः, आत्मना अभूत् स्वयमेवाभूदित्युस्प्रेक्षा; अन्यथा दमयन्त्याः कथमीदृशी अङ्गलावण्यसम्पत्तिः चन्द्रवदनत्वञ्चेति भावः। चन्द्रमा अपने अमृत ( सुधा, अथवा-दूध-दही आदि गोरस ) से निकले हुए मक्खन से उष्पन्न अङ्गोंवाली तथा क्रमशः बढ़ते हुए पीलापन ( पक्षा० गौर वर्ण) वाली इस ( दमयन्ती ) को बनाकर ( रात्रि में ) बन्द होनेवाले कमलसे दुर्घट अपनेसे ( स्वयं ही ) मुख बन गया। [ कमल रात्रिमें बन्द हो जाता है, अतएव दमयन्तीका मुख कमलसे नहीं रचा गया है / दमयन्ती अत्यन्त गौर वर्ण वाली, अत्यन्त सुकुमारी तथा चन्द्रमाके समान मुखवाली है ] // अस्याः स चारुमधुरेव कारुः श्वासं वितेने मलयानिलेन / अमूनि पुष्पैर्विदधेऽङ्गकानि चकार वाचं पिकपञ्चमेन / / 130 // अस्या इति / चारुः चतुरः, सः प्रसिद्धः, मधुर्वसन्त एव, नान्यः इति भावः, अस्याः भैम्याः, कारु: शिल्पी, यतो मलयानिलेन उपादानेन, अस्याः श्वासं निःश्वासमारुतं, वितेने चकार; पुष्पैरमूनीति हस्तनिर्देशः, अङ्गकानि विदधे वाचं पिकपञ्चमेन कोकिलस्वरेण, 'पिकः कूजति पञ्चमम्' इति वचनात् , चकार ससर्ज, इत्युत्प्रेक्षा; अन्यथा कथमेषामीहशानि सौरभमार्दवमाधुर्याणीति भावः // 130 // चतुर यह प्रसिद्ध वसन्त ही इस ( दमयन्ती ) का शिल्पी ( बनानेवाला कारीगर ) है; उसने मलयबायुसे इसके श्वासको बनाया, पुष्पोंसे इन कोमल अङ्गोंको बनाया तथा कोमलके
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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