SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 373
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 304 नैषधमहाकाव्यम् / अन्तःपुरकी कन्याओंकी अगभङ्गी आदि भावोंको देखने पर भी नल जितेन्द्रिय होनेसे कामदेवके वशीभूत नहीं हुए ] // 19 // दोर्मूलमालोक्य कचं रुरुत्सोस्ततः कुचो ताबनुलेपयन्त्याः / नाभीमथैष श्लथवाससोऽनु मिमील दिक्षु क्रमकृष्चक्षुः // 20 // दोरिति / एष नलः, कर्च केशपाशं, लस्सोः रोक्षु बन्धुमिच्छोः, कस्याश्चिहोर्मूलं बाहुमूलमालोक्य / ततोऽनन्तरं, कुचावनुलेपयन्स्याः तो कुचावालोक्य, अथ रलथ. वाससः सस्तांगुकायाः नाभीमालोक्य, अन्वनन्तरं, दिक्षु पुरः पार्श्वभागेषु क्रमेण कृष्टचपुः प्रत्याहृतष्टिः सन् , मिमील निमीलिताशोऽभूत् / तत्र तथा यथेष्टचे? स्त्रीमण्डले तस्य पापभीरोनंबनिमीलनमेव प्राप्तमित्यर्थः // 20 // __ केशको बांधनेकी इच्छा करनेवाली किसी कन्याके ( दोनों हार्थोके ऊपर उठाने के कारण उसके ) बाहुमूल ( कांख ) को देखकर, इसके बाद दोनों स्तनोंपर कुलमादिका लेपन करती हुई उसके स्तनोंको देखकर फिर शिथिल वसोवालीकी नामीको देखकर इस नलने क्रमशः ऊपरसे नीचेकी ओर दृष्टि करते हुए अन्तमें दृष्टियोंको बन्दकर लिया। [ उक्त तीनों क्रियाएं क्रमशः एक ही वाला में अथवा विभिन्न क्रियायुक्त अनेक बालाओंमें देखकर नलने परस्त्रीके कक्ष, स्तन तथा नाभिके दर्शनका परिहार करने के लिए ऊपरसे नीचेकी ओर दृष्टि करते हुए अन्तमें परिहार न होनेपर उसे ( दृष्टिको) सर्वथा बन्द कर लिया। इससे भी नलका उत्तम नायक होना सिद्ध होता है ] // 20 // मीलन्न शेकेऽभिमुखागताभ्या धतु निपीडय स्तनसान्तराभ्याम् / स्वाङ्गान्यपेतो विजगौ स पश्चात्पुमङ्गसङ्गोत्पुलके पुनस्ते // 21 // मोलनिति / मीलनिमीलिताक्षः, स नलः, अभिमुखमन्योन्याभिमुखमागताभ्यां तथापि स्तनाभ्यां निमित्तेन सान्तराभ्यां सव्यवधानाभ्यां काभ्यांचित् स्त्रीभ्यां निपीव्य मध्ये निरुध्य धतुं ग्रहीतुं, न शेके शक्यो नाभूत् / स नलः, पश्चादपेतोऽपसृतः स्वानानि विजगौ; परस्त्रीसंस्पर्शदोषाद्विजगहें, निनिन्द / ते स्त्रियो पुनः, पुंसोजसनेन उत्पुलके उद्तरोमाने जाते // 21 // परस्पराभिमुख आती हुई दो बालिकायें (मध्यस्थित) नेत्र मदे हुए उस नलको अच्छी तरह नही पकड़ सकीं, किन्तु उन दोनोंके अत्युन्नत स्तन ही परस्परमें सट गये / फिर उन दोनों के बीचसे हटकर पुरुष-संसर्गसे रोमाञ्चयुक्त उन दोनों कन्याओंको देखकर उस नलने अपने शरीरावयवोंकी निन्दा की। [ अथवा-उन दोनोंसे अलग हटकर नलने अपने शरीरावयवोंकी निन्दा की तथा वे दोनों कन्याएं पुरुषस्पर्शसे 'रोमाञ्च' नामक सात्त्विक भावसे युक्त हो गयीं। उन दोनों कान्याओंके स्तन इतने बड़े थे कि उन दोनों कन्याओं के मध्यमें नलके रहनेपर भी ये परस्परमें सट गये, पर नलको वे दोनों अच्छी तरह पकड़ नहीं सकी, किन्तु केवल उनके शरीरका स्पर्शमात्र हुआ, जिससे सावधान बलने उनसे
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy