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________________ अष्टमः सर्ग: इति त्रिलोकीतिलकेषु तेषु मनोभुवो विक्रमकामचारः। अमोघमख् भवतीमवाप्य मदान्धतानर्गलचापलस्य / / 81 // इतीति / हे भैमि ! भवतीमेवामोघमस्त्रमवाप्य मदान्धतया अनर्गलचापलस्य उच्छङ्खलचेष्टितस्य मनोभुवः कामस्य त्रिलोकीतिलकेषु त्रिभुवनभूषणेषु तेविन्द्रादिषु विषये इतीत्थं विक्रमस्य कामचारः स्वाच्छन्ग्रवृत्तिर्वर्तत इति शेषः / __तीनों लोकके भूषणरूप उन ( इन्द्र, अग्नि, यम तथा वरुण ) में तुम अमोघ अस्त्रको प्राप्तकर ( स्थित ) मदान्धतासे निर्बाध चपलतावाले कामदेवके इस प्रकार ( श्लोक० 58 से 83 तक वणित क्रमसे ) पराक्रम की स्वेच्छाचारिता हो रही है / [ लोकमें भी अन्य कोई मदान्ध व्यक्ति सफल अस्त्र पाकर तथा चपलताके वशीभूत होकर निर्वाध रूपसे श्रेष्ठ लोगों में भी अपना दुर्व्यवहार करने लगता है, और मदान्ध होनेसे चञ्चल व्यक्तिका बड़े लोगोंमें उचितानुचितकी विचार छोड़कर दुर्व्यवहार करना कोई आश्चर्य नहीं है; अथ च-मदान्ध होनेसे चपल हाथीका श्रेष्ठ लोगों में भी अपना पराक्रमका स्वच्छन्द प्रयोग करना आश्चर्य नहीं है / मदान्ध कामदेव तुमको साधन बनाकर त्रैलोक्य श्रेष्ठ इन्द्रादिको निरन्तर पीड़ित कर रहा है ] // 84 // सारोऽथ धारेव सुधारसस्य स्वयंवरः श्वो भविता तवेति / सन्तर्पयन्ती दमयन्ति / तेषां अतिः श्रुती नाकजुषामयासीत् / / 8 / / सार इति / अथानन्तरसमये हे दमयन्ति ! तव स्वयंवरः श्वः परेऽह्नि भविता भविष्यतीति श्रुतिर्वार्ता / 'श्रुतिः श्रोत्रेप्यथाम्नाये वार्तायां श्रोत्रकर्मणि' इति विश्वः / सुधारसस्य सारः सारभूता धारेव सन्तर्पयन्ती नाकजुषामिन्द्रादीनां श्रुती श्रोत्रे अयासीत् प्राप / “सारोत्थे"ति पाठे सारप्रभवेत्यर्थः // 85 // __ हे दमयन्ति ! 'तुम्हारा स्वयम्वर कल होगा' यह बात अमृत रसके सारभूत (पाठा०सारोत्पन्न ) धाराके समान सन्तृप्त करती हुई उन स्वर्गनिवासियों (इन्द्रादि देवों) के दोनों कानोंमें पहुँचती है अर्थात् इन्द्रादि देवोंने तुम्हारे स्वयम्बर के समाचारको बड़े आनन्दके साथ सुना है // 85 // समं सपत्नीभवदुःखतीक्ष्णैः स्वदारनासापथिकैर्मरुद्भिः। अनङ्गशौयोनलतापदुःस्थैरथ प्रतस्थे हरितां मरुद्भिः // 86 // सममिति / अथ स्वयंवरवार्ताश्रवणानन्तरमनङ्गस्य शौर्यानलेन प्रतापाग्निना यस्तापस्तेन दुःस्थैरस्वस्थैर्हरितां दिशां सम्बन्धिभिर्मरुद्भिर्देवैरिन्द्रादिभिः स्वस्वामिभावसम्बन्धे षष्ठीसमासः / समानः पतिर्यस्याः सासपत्नी / “नित्यं सपत्न्यादिषु" इति लोप नकारश्च / तद्भवेन दुःखेन तीक्ष्णैःसहैः स्वदाराणां नासासु पन्थानं गच्छं. न्तीति पथिकैः पान्थैर्मरुद्भिः समं वायुभिः सह 'मरुतौ पवनामरौ' इत्यमरः / प्रतस्थे प्रस्थित भावे लिट् / शच्यादिभिरिन्द्रादिकलत्रैरागामिसापत्न्यदुःखादीर्घमुष्णन
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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