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________________ दशमः सर्गः। च अलीकनलावली निर्दिश्य अत्र सभायां बहवो नलेन तुल्यरूपा विद्यन्ते, तत" कथं नलमेव पुनः पुनः वर्णयथ ? इति भावः। ननु नलसहशानां बहूनां सत्त्वेऽपि स्वस्य कथं रूपोत्कर्षः ? इत्यत आह-मत्सराणां मत्सरिणाम, आत्मनोऽपकर्षे शत्रुसकाशात् न्यूनत्वे सति, द्विषः प्रतिपक्षस्य, परेण पुरुषान्तरेण, स्पद्धनया सङ्घर्षणया, कोटयन्तरसाधारण्यापादनेनेत्यर्थः, स्वार्थे ण्यन्तात् युच / समाधिः किल आत्मापकर्षपरिहारः खल्वित्यर्थः, एतादृशाः कति सन्तीति समानकोट्यन्तरोद्धाटनेन दूषयित्वा तुष्यन्तीति समुदायार्थः। अर्थान्तरन्यासः // 43 // दुष्ट उन्होंने ( उन राजाओंने ) 'यहांपर ऐसे कितने अर्थात् अनेक हैं' ऐसा कहकर असत्य नल-समूह (नलरूपधारी इन्द्रादि चारो देव ) का दृष्टान्त अपने उक्त वचनके समर्थन में उदाहरण दिया / ( पाठा०-उन्होंने मायानलों ( नलरूपधारी इन्द्रादि देवों ) के उदाहरणसे 'इस ( वास्तविक नल ) के समान कितने अर्थात् अनेक हैं। ऐसा आपस में कहा ) / मत्सर ( दूसरेके भलेमें द्वेष ) करनेवालों का शत्रुसे अपनी हीनता रहने पर दूसरेकी स्पर्द्धासे समाधान होता है। [ नलको देखकर उनसे अपनेको तुच्छ मानकर ईर्ष्यालु, राआओंने नलरूपधारी इन्द्रादि चारो देवोंको दिखाकर कहा कि-इस (वास्तविक नल) के समान कई हैं, अतः इसके सौन्दर्यका कोई महत्त्व नहीं है। लोकमें भी स्वयं शत्रुकी समता नहीं कर सकनेपर दूसरों के साथ उस शत्रुकी समता करके अपने चित्तका समाधान किया जाता है ] // 43 // गुणेन केनापि जनेऽनवद्ये दोषान्तरोक्तिः खलु तत् खलत्वम् / रूपेण तत्संमददूषितस्य सुरैर्नरत्वं यददूषि तस्य // 44 // गुणेनेति / केनापि गुणेन अनवद्ये अगो, सर्वगुणसम्पन्ने इत्यर्थः, 'अवधपण्ये" त्यादिना निपातनात् साधुः / जने दोषान्तरोक्तिः कस्यचिदनवद्यधर्मस्य दोषत्वेनोद्धाटनमित्यर्थः, तत्खलत्वं तदेव तस्य वक्तर्दुष्टत्वं खलु / कुतः ? यद् यस्मात् , रूपेण सौन्दर्येण, तस्यां संसदि तथा संसदा वा अदूषितस्य, प्रत्युत स्तुतस्यैवेति भावः, तस्य नलस्य सम्बन्धि, नरत्वं मनुष्यत्वं, सुरैरिन्द्रादिभिः, अदूषि अतिसौन्दर्यशाली अपि नरोऽयं न तु देव इति दोषत्वेनोद्घाटितमित्यर्थः / दूषयतेः कर्मणि लुङ / सामान्योक्तस्य खलत्वस्य नरत्वदूषणेन समर्थनाद्विशेषेण सामान्यसमर्थनरूपोऽर्थान्तरन्यासः॥४४॥ किसी अर्थात् अनिर्वचनीय ( अथवा-किसी एक भी) गुण से मनुष्य के अनिन्दनीय रहनेपर भी दोषान्तर ( दूसरे दोष, अथबा-गुणको ही दोष ) बतलाना वह दुष्टता है / जो देवोंने उस सभामें ( अथवा-उस समासे ) अदूषित (दूषित नहीं, प्रत्युत प्रशंसित ) उसः नलके नरत्व ( मनुष्यभाव, पक्षा०-नलभाव ) को दूषित किया / [ सभामें प्रशंसित गुणवान् भी यह नल 'नर' अर्थात् मनुष्य है देव नहीं है इस प्रकार जो देवोंने नलके अदोषको भी दोष बतलाया यह उनकी दुष्टता थी] // 44 //
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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