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________________ पञ्चमः सर्गः 261 कुछ भी विचार होगा तो नहीं जाओगी। थोड़ा भी विवेक रखने वाला व्यक्ति गतानुगतिकताको छोड़कर विवेक द्वारा काम लेता है, कामान्ध इन्द्र वैसा नहीं करनेसे विवेकशून्य हो रहा है ] // 54 // अन्वयुद्युतिपयःपितृनाथास्तं मुदाथ हरितां कमितारः / वर्त्म कर्षतु पुरः परमे कस्तद्गतानुगतिको न महाघः / / 55 // अन्वयुरिति / अथेन्द्रप्रयाणानन्तरं, हरितां कमितारो दिशा कामयितारो दिक्प. तयः, इन्द्रानुयानाही इत्यर्थः / ज्यामयातमेतत् / अतिपयःपितृणां नाथा वहिवरुणयमाः, तमिन्द्रं, मुदा औत्सुक्येन, अन्वयुरनुयाताः / 'लङः शाकटायनस्यैव' इति झेर्जुसादेशः। तथा हि, एकः वरमेक एव पुरः, वर्म कर्षतु मार्ग करोतु / तस्य मार्गकर्तुः गतमनुगतिर्यस्य स महा? महामूल्यः दुर्लभ इति यावत् / न भवति / पुरोग एव दुर्लभस्तत्पृष्ठानुयायिनस्तु सर्वत्र सुलभा एवेति न किश्चिदन चित्रमित्यर्थः // 55 // इसके ( इन्द्र के दमयन्तीके साथ विवाहार्थ स्वर्गसे प्रस्थान करनेके ) बाद दिक्पाल द्युतिपति, पितृपति तथा जलपति ( क्रमशः-अग्नि, यम और वरुण ) भी हर्षसे (दमयन्ती. को देखने ) उस इन्द्र के पीछे चले / कोई एक व्यक्ति किसी नये मार्गको चालू कर दे, फिर उसके पीछे चलनेवाले व्यक्ति दुलंम नहीं है / [जो सर्वप्रथम किसी नये रास्तेको चालू करता है, संसार में वही व्यक्ति दुर्लम है, बाद में उसके पीछे चलने वाले भनेकों हो जाते हैं // 55 // प्रेषिताः पृथगथो दमयन्त्यै चित्तचौर्यचतुरा निजदूत्यः / तद्गुरुं प्रति च तैरुपहाराः सख्यसौख्यकपटेन निगूढाः / / 56 // प्रेषिता इति / अथो अनन्तरं, तैरिन्द्रादिभिः, चित्तचौर्ये दमयन्त्याश्चित्ताकर्षणे, चतुरा निजदूत्यः दमयन्त्यै पृथक प्रेषिताः / तद्गुरुं तस्पितरं भीमच प्रति, सस्यसौ स्यकपटेन मैत्रीसुखम्याजेन, निगूढाः गुप्ताः, उपहारा उपायनानि प्रेषिताः // 56 // इप्त के बाद उन लोगों ( इन्द्र, अग्नि, वरुण तथा यम) ने दमयन्तीके पास चित्तको वशीभूत करने में चतुर अपनी अपनी दूतियोंको (परस्पर में) गुप्त रूपसे अलग 2 भेजाअथवा राजा या उस नगरवासियोंसे छिपाकर...."दूतियों को भेजा / और उस दमयन्तीके पिताके लिये मित्रके सुखभाव या सुखाधिक्य के व्याजसे (बहुमूल्य होने के कारण ) चित्तको लुमानेवाले परस्पर में छिपाकर ( एक दूसरेको न जनाकर ) उपहार ( रत्न आदिका भेंट) भी भेजा। [ उनमें प्रत्येक लोकपालने यही सोचा कि मेरा दूती तथा उपहारका भेजना अन्य तीनों सहागत लोकपालों को मालूम नहीं है / लोकमें भी एक वस्तु के लिये इच्छा करनेवाले जब कई व्यक्ति होते हैं, तब वे परस्परमें एक दूसरेसे छिपाकर उसको पानेका यत्न करते हैं ] // 56 //
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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