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________________ 442 नैषधमहाकाव्यम् / होते ही है, किन्तु सूर्योदय होनेपर भी अर्थात् दिनमें मी तुम्हारे विरहसे सन्तप्त होते रहते हैं ] // 62 // त्रिनेत्रमात्रेण रुषा कृतं यत्तदेव योऽद्यापि न संवृणोति / न वेद रुष्टेऽध सहस्रनेत्रे गन्ता स कामः खलु कामवस्थाम् / / 63 / / त्रिनेत्रेति / त्रिनेत्र एव त्रिनेत्रमात्रः। 'मानं कास्न्येऽवधारणे' इत्यमरः / तेन सन्मात्रेण रुषा यस्कृतमनङ्गत्वमिति भावः। तदेव यः कामोऽयापि न संवृणोति नाच्छादयितुं शक्नोतीत्यर्थः। स कामोऽद्य सहस्रनेने इन्द्रे रुष्टे क्रुद्ध सति कामवस्था दशां गन्ता गमिष्यति / गमेलुट / न वेद न जाने खलु / वाक्यार्थः कर्मः। “विदो लटो वा" इति मिपो णलादेशः / त्रिनेत्रमास्कन्ध नष्टः कामः सहस्रनेत्रं कथं जेष्यती. त्यर्थः। कामस्वस्कृते निःशङ्कमिन्द्रं दुःखाकरोतीति तात्पर्यार्थः // 63 // __ केवल तीन नेत्रोंवाले (शङ्करजी) ने क्रोधसे जो ( अनङ्गत्व = शरीराभाव ) किया, उसी (अनङ्गत्व ) को जो काम आज भी नहीं पूरा कर सका है तो सहस्र नेत्रोंवाले (इन्द्र) के रुष्ट होनेपर वह कामदेव किस (वर्णनातीत ) अवस्थाको प्राप्त करेगा, यह नहीं जानता हूँ / [जो कामदेव क्रोधसे तीन नेत्रोंवाले शङ्करजी के द्वारा की गयी अपनी क्षतिको बहुत दिन बीतनेपर भी आजतक पूरा नहीं कर सका, वह कामदेव हजार नेत्रोंवाले इन्द्रके रुष्ट होने पर जिस अवस्थाको पावेगा, वह कल्पनातीत ही है। लोकमें भी कोई व्यक्ति किसी साधारण शत्रुद्वारा की गयी हानि की पूर्ति करनेमें असमर्थ है तो वह बड़े शत्रुके दारा की गयी हानिको पूरा कर लेगा यह सर्वथा असम्भव ही है / कामदेव इन्द्रको सर्वदा पीड़ित कर रहा है ] // 63 // पिकस्य वामात्रकताद्वचनोकाम स प्रभुनन्दति नन्दनेऽपि / बालस्य चूडाशशिनोऽपराधान्नाराधनं शीलति शूलिनोऽपि / / 61 / / पिकस्येति / सः प्रभुरिन्द्रः पिकस्य कोकिलस्य वाङमात्रकृतात् न तु कामवत् कायकृतादिति भावः। म्यलीकादप्रियान्नन्दने नन्दनाख्ये आनन्दकरेऽपीति गम्यते। बने न नन्दति किमुतान्यत्रेति भावः / किञ्च बालस्य कृशस्य चूडाशशिनोऽपराधात् अपकारात् सन्तापरूपात किमुत पूर्णेन्दोरिति भावः। शूलिनः शिवस्याप्याराधनं पूजां न शीलति नाचरति / “शीलसमाधौ" इति भौवादिकालट / इन्द्रो विरहपार. वश्यादावश्यकं किमपि कर्म न करोतीत्यर्थः। अत्रानन्दशिवाराधनसम्बन्धेऽप्यस. म्बन्धोक्तेरतिशयोक्तिभेदः // 2 // प्रभु ( निग्रहानुग्रह-समर्थ ) वे इन्द्र कोयलके केवल वचनमात्रसे (कामके समान शरीरसे नहीं) किये गये अप्रिय कार्यसे ( आनन्दकारक ) 'नन्दन' ( नामक अपने उद्यान ) में मी आनन्दित नहीं होते हैं और बाल (एक कलामात्र ) ( शिवजीकी ) चूडामें स्थित चन्द्रमाके अपराषसे शिवजीका पूजन भी नहीं करते हैं / [ जो नन्दन अर्थात् आनन्द
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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