________________ प्रथमः सर्गः। तिकया ज्वलत् दीप्यमानं भुवो वलयं भूचनं प्रदक्षिणीकृत्य प्रदक्षिणं परिभ्राम्य रराज / तत्र बलप्रतापानलो नानादिग्त्रयात्रायां प्राच्यादिप्रादक्षिण्येन भूमण्डलं परित्रमन् निजप्रतापनीराजनया भूदेवता नीराजयकिव रराजेत्युत्प्रेक्षा ग्यञ्जकाच. प्रयोगादग्या / इति व्याचक्षते। तन्न समीचीनम् , निजप्रतापेरियस्य नीराजनये. स्यनेन सामानाधिकरण्यासङ्गतेरिति // 10 // (क्षुद्र प्राणियों को नहीं, किन्तु मशप्रतापी पवं शूरवीर ) राजामों को मारने वाले तथा बहुतसे जलाये गये शत्रुनगरोंवाली अग्निके समान प्रकाशमान अपने प्रतापोंसे प्रकाशमान भूमण्डल को प्रदक्षिणा कर स्थित वे ( नल ) विजयके लिये ( पुरोहितों के द्वारा ) की गयी नीराजना अर्थात मारतीसे शोमते थे। 'अथवा-उक्तरूप अपने प्रतापोंसे मानो विजय के लिए रचित भारती (पक्षा-नीराजना= राजाओंका अमाव अर्थात् नाश करने ) से प्रकाशमान भूमण्डलकी प्रदक्षिणा कर शोमते थे। अथवा-'प्रदक्षिणी, कृती, मजया, आय = प्रदक्षिणीकृत्य जयाय' ऐसा पदच्छेद कर अधिक दक्षिणाशील, अनुचरोंवाले कृतकर्मा, विपक्षराजहन्ता वे नल लक्ष्मीके द्वारा विष्णु के लिए रचित आरतीसे शोमित होते थे. शेष अर्थ पूर्ववत् समझना चाहिये / इस पक्षमें नलके मनुचर प्रदक्षिण ( अधिक दक्षिणा देनेवाले अर्थात वदान्य ) थे और नक उनसे युक्त होनेसे 'प्रदक्षिणी' ( वदान्यतम अर्थात अत्यधिक दानशील थे। अथवा-अधिक दक्षिणावाले ज्योतिष्टोमादि यज्ञकर्ता होनेसे नल 'प्रदक्षिणी' थे / राजाको सर्वदेवांशभूत होने के कारण विष्णुरूप मी होनेसे लक्ष्मीके द्वारा आरती करना उचित ही है ] // 10 // निवारितास्तेन महीतलेऽखिले निरीतिभावं गमितेऽतिवृष्टयः / न तत्यजुनूनमनन्यसंश्रयाः प्रतीपभूपालमृगीदृशां दृशः // 11 // निवारिता इति / तेन नलेन अखिले समग्रे महीतले न सन्ति ईतयः अतिवृ. टयादयः यत्र तत् निरीति, तस्य भावः तम् ईतिराहित्य मित्यर्थः। ईतयश्वोक्ता यथा'अतिवृष्टिरनावृष्टिः शलभा मूषिकाः खगाः। प्रत्यासन्नाश्च राजानः षडेता ईतयः स्मृताः // इति / गमिते प्रापिते सति निवारिताः स्वराष्टात् निराकृता इत्यर्थः / अतिवृष्टयः नास्ति अन्यःसंश्रयः आश्रयः यासां तथाभूताः सत्याः प्रतीपभूपालानां प्रतिपक्षनृपतीनां या मृगीदृशःमृगनयनाः कान्ताः तासां दृशः नयनानि न तस्यजुः / नूनं मन्ये इत्यर्थः। उत्प्रेक्षावाचकमिद, तदुक्तं दर्पणे 'मन्ये शके ध्रवं प्रायो नून. मित्येवमादयः। उत्प्रेक्षाध्यक्षकाः शब्दाइवशब्दोऽपिताश' इति / नलनिहतभर्तृका राजपस्न्यः सततं रुल्दुरिति भावः // 11 // (अतिवृष्टि आदि छः ) ईतियोंसे रहित सम्पूर्ण भूतलपर उस ( नछ ) के द्वारा रोकी 1. दिग्विजय करते हुए भूमण्डलकी प्रदक्षिणा कर लौटे हुए विजयी नल पुरोहितोंके भारती करनेसे शोभित होते थे।