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________________ 10 नैषधमहाकाव्यम् / विषयमें दरिद्र बनाते हैं.......। या-श्यामवर्ण अर्थात् नील कमलको दमयन्तीके नेत्र शोभा-सम्बन्धी मदके विषय में दरिद्र बनाते हैं तथा विस्फारित होते हुए हरिणीको शोमा सम्बन्धी मदके विधयमें दरिद्र बनाते हैं। और अञ्जनसे शोमित दमयन्तीके नेत्र खजरीटको शोमा-सम्बन्धी मदके विषयमें दरिद्र बनाते हैं। दमयन्तीके नेत्रोंने अपने श्यामत्व गुणसे कमलको, विशाहत्व गुणसे हरिणियों ( के नेत्रों ) को और अञ्जन युक्त होनेपर कृष्ण श्वेत गुणसे खजरीटको जीत लिया ] // 23 // अधरं खलु बिम्बनामकं फलमस्मादिति' भव्यमन्वयम् | लभतेऽधरबिम्बमित्यदः पदमस्या रदनच्छदं वदत् // 24 // अधरमिति / अधरविश्वमित्यदः पदम अधरं बिम्बमिवेत्युपमितसमासाश्रयणेन स्त्रीणामधरेषु यत्पदं प्रयुज्यते तदित्यर्थः / अस्या दमयन्त्याः रहनच्छवम् ओष्ठममि. दधत् तदभिधानाय प्रयुक्तं सदित्यर्थः / बिम्बनामकं फलं विम्बमस्मादमयन्तीरद नन्छदावधरं किलापकृष्टं खल्विति अपरशब्दस्यापकृष्टार्थत्वे अधरं विम्बं यस्मात्त. दिति बहुव्रीहिसमासे च सति भण्यमबाधितमन्वयं वृतिपदार्थसंसर्गलक्षणं लभते, अन्यथा समर्थसमासाश्रयणे 'समर्थः पदविधिरिति समर्थपरिभाषा भज्येत, तर्हि नोपमा स्यादिति भावः / अन दमयन्तीदन्तच्छदस्य बिम्बाधरीकरणासम्बन्धेऽपि सम्बन्धोक्तेरतिशयोकि पूर्ववत् ध्वनिश्च // 24 // (अधर विम्बके समान हैं, इस अर्थ में प्रयुज्यमान ) 'अधरबिम्ब' यह पद इस ( दमयन्ती ) के बोष्ठको कहता हुआ 'विम्ब' नामक फल ( दमयन्तीके ) इन दोनों ओष्ठोसे अधर अर्थात् हीन है, इस प्रकार ( बहुव्रीहि समासात्मक ) उचित अन्वयको प्राप्त करता है। [इस दमयन्तीके मोष्ठों की अपेक्षा लालिमा तथा अमृतकल्प मधुरिमामें अत्यन्तहीन होनेसे 'अघर' (हीन ) है 'बिम्ब' (बिम्बफल ) जिससे ऐसा बहुव्रीहि समासात्मक अन्वय अधरबिम्ब' पदके लिए उचित है और अन्यान्य स्त्रियों के ओष्ठों के साथ बिम्बफरूकी समानता होनेसे लोकप्रसिद्ध अधर ( ओष्ठ ) बिम्बके समान है, ऐसा तत्पुरुष कर्मधारय समासात्मक अन्वय करना ठीक है ] // 24 // हृतसारमिवेन्दुमण्डलं दमयन्तीवदनाय वेधसा। 1.2. अत्र म० म० शिवदत्तशर्माणः-'आभ्याम् , रदनच्छदे। इति द्विवचनान्तपाठः साहित्यविद्याधरीसम्मतः / यतो व्याख्यातम्-रदनच्छदे ओठौ वदत् प्रतिपादयत् / रदन. च्छदस्य नपुंसकत्वम् / यदुक्तं प्रतापमार्तण्डामिधानकोषे-'गरुरपक्षच्छदोऽखियाम्' इति / 'आभ्याम् , रदनच्छदे' इति पाठस्तु सर्वथाऽशुद्धः, 'ओष्ठोऽधरो रदच्छदः' इति पुंल्लिग निदेशात , इति सुखावबोधा / आभ्यामिति पाठे रदनच्छदौ वददिति युक्तः पाठः। छद. शब्दस्य पुंल्लिङ्गत्वात् / 'दलं पर्ण छदः पुमान्' इत्यमरः, इति तिलकव्याख्यायामभिहितम् / , रदनच्छद वदन् 'वद स्थैर्ये स्थिरीभवन्निति सप्तम्यन्तपाठाङ्गीकारश्च'। इति /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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