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________________ दशमः सर्गः। 615 धनुर्धारी के लिये लक्ष्यभूत.दो कुण्डलोंको धारण किया है क्या ?, उस ( कामदेव ) से दहने-बांय के क्रमसे छोड़े गये बाण इन दोनों (कुण्डलों ) के बीचसे (पाठा०-बीच में ही ) निकलते हैं। [ लोकमें भी कुशल धनुर्धारी दहने-बांयें-दोनों ओरसे बाण छोड़ते हैं तथा उनके बाण कानों के कुण्डल के बीचसे निकल जाते हैं, जिससे उनका लक्ष्यवेधमें सिद्धहस्त होना प्रमाणित होता है, ऐसा ही यहां कामदेवको कुशल धनुर्धारी कहा गया है] // तनोत्यकीर्ति कुसुमाशुगस्य सैषा बतेन्दीवरकर्णपूरौ / यतः श्रवःकुण्डलिकाऽपराद्ध-शरं खलः ख्यापयिता तमाभ्याम् // 118 // __ तनोतीति / सैषा भैमी, इन्दीवरकर्णपूरावेव तद्पामित्यर्थः, कुसुमाशुगस्य अकीर्तिम् अपकीत्तिम्, तनोति ताभ्यां तस्याकीत्तिम् जनयतीत्यर्थः; आयुर्घतमितिवत् कार्यकारणयोरभेदोपचारः, कारणेन्दीवरगुणादकीर्तिश्च कालिमेति भावः, वतेति खेदे। कुतस्तत्कारणम् ? तदाह-यतः खलः कश्चिद्दोषान्वेषी दुर्जनः, आभ्यां कामशराभ्याम् इन्दीवर कर्णपूराभ्याम्, इमावेव निदर्येत्यर्थः, ल्यब्लोपे पञ्चमी, तं कुसुमशरं, श्रवसोः कर्णयोः, कुण्डलिके ताटङ्करूपे लक्ष्ये चक्रे इत्यर्थः, ताभ्याम, अपराद्धशरं च्युतनीलोत्पलरूपसायकम्, 'अपराद्धपृषत्कोऽसौ लक्ष्यायश्च्युतसायकः' इत्यमरः, ख्यापयिता ख्यापयिष्यति, कर्तरि लुट , इन्दीवरयोरपि कामशरत्वात् कुण्डलिकाबहिर्भागे लग्नत्वाच्च एतद्दृष्टान्तेनैवान्यत्रापराद्धपृषत्कदोषोद्घाटनसौकर्यात्तयोरकी. र्तिकारणत्वोत्प्रेक्षेत्यर्थः // 118 // वह दमयन्ती नील कमलों के दो कर्णभूषण-रूप कामदेव की अपकीर्ति फैलाती है यह खेद है; क्योंकि दुष्ट जन इन ( दो नीलकमलों के कर्णभूषणों) के द्वारा कानके कुण्डलरूप लक्ष्यको वेध नहीं करने वाले उस ( कामदेव ) को प्रसिद्ध करेंगे अर्थात् कहेंगे। [ कुशल धनुर्धारी के बाण कानके कुण्डलों के बीचसे निकल जाते हैं, यह पूर्व श्लोकमें कहा जा चुका है। यहां पर यह कहा जाता है कि दमयन्तीने दो नील कमलों के कर्णभूषण जो धारण किये हैं, ये उनको दुष्ट लोग 'कामदेवके द्वारा छोड़े गये नील कमल रूप दो पुष्प बाण दमयन्तीके कर्णकुण्डलों के बीचसे नहीं निकलकर लक्ष्यभ्रष्ट होकर (ठीक निशाना नहीं मारकर ) कानपर ही रुक गये हैं, अतएव यह कामदेव लक्ष्यवेधमें निपुण नहीं है' ऐसी कामदेव की अपकीर्ति ( बदनामी ) करेंगे। नीलकमलोंको कामदेवके बाणों का पुष्पमय होनेसे कामबाण तथा अपकीर्तिके काली होनेसे उनका अपकीर्ति मानना ठीक ही है / दमयन्तीके नीलकमलरूप कर्णपूरोंको देखकर काम-वृद्धि होती है ) // 118 / / रजःपदं षटपदकीटजुष्टं हित्वाऽऽत्मनः पुष्पमयं पुराणम् / अद्यात्मभूराद्रियतां स भैम्या भ्रयुग्ममन्तधृतमुष्टि चापम् // 119 // रज इति / अद्य आत्मभूः स कामः, रजसा पदं स्थानं, परागाश्रयं काष्ठचूर्णाश्र. यञ्चेत्यर्थः, षट्पदैरेव कीटैः क्रिमिभिः, जुष्टं सेवितं,-घुणादिसेवितश्चेत्यर्थः, पुराणं 36 नै०
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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