________________ 198 नैषधमहाकाव्यम् / तार्तीयीकतया मितोऽयमगमत्तस्य प्रबन्धे महा काव्ये चारुणि नैषधीयचरिते सर्गो निसर्गोज्ज्वलः // 136 // श्रीहर्षमित्यादि / तृतीय एव तार्तीयीकः / 'द्वितीयतृतीयाभ्यामीकक स्वार्थे वतन्य' तस्य भावस्तत्ता तया मितस्तृतीय इत्यर्थः / शेषं सुगमम् // 36 // इति मधिनाथ सूरिविरचितायां 'जीवातु' समाख्यायां नैषध' टीकापां तृतीयः सर्गः // 3 // "GOMTV कविराज........ उत्पन्न किया, उसके मनोहर रचनारूप 'नैषधीयचरित' नामक महाकाव्य में तृतीय सर्ग समाप्त हुआ। (शेष व्याख्या प्रथम सर्ग के समान जाननी चाहिये ) // 136 // यह 'मणिप्रमा' टीकामें 'नैषधचरित' का तृतीय सर्ग समाप्त हुमा // 3 //