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________________ नैषधमहाकाव्यम् / स्फुटन पत्रः करपत्रमूर्तिभिर्वियोगिहरामणि दारणायते // 8 // स्वदिति / तवाप्राण्येव सूच्यः सचिवाः सहकारिणो यग्य स तथोकः स प्रसिद्धो मनोभवः कामिनी च कामी च कामिनी तयोः, 'पुमान् सिपे'त्येकशेषः / दुर्यशासि अपकीर्तयाताः पटाविति रूपकं तानि सीव्यति कण्टकस्यूतं करोतीत्यर्थः। किश्चेति चायः करपत्रमूतिमिः कचाकारः, 'क्रकचोऽसी करपत्रमित्यमरः / पत्रेस्तैर्वियोगि. नां हृयेव दारुणि दारयनीति दारुणो विदारको भेत्ता स इवाधरतीति दारुणायते, 'कतः क्यड़ सलोपश्चेति क्यडन्तात् लट् / दारागायत इस्युपमा, सा च दारणीति रूपकानुप्राणितेति सारः // 80n कामदेव तुम्हारे प्रमाग (नोक) रूपी सरंकी सहायतासे कामी सी-पुरषों के दुष्कोतिरूप बयोंको सोता है, तथा वह कामदेव भारे ( लकदी चीरनेका अनविशेष ) के समानाकार तुम्हारे पोंसे वियोगियोंके हृदयरूप कढीपर भपरप हो बारेके सभाम म्यपहार करता-(इस प्रकार कोषसे नठने केसको-पुस्पको निन्दा की' ऐसा सम्बन्ध मग्रिम ( 1981 ) कोकके साथ करना चाहिये ) [ केवको पुष्प देखनेसे कामी एवं विरही सी-पुरुषोंका पेमङ्ग होता है, पिसके कारण दुष्कोति पारे, तवा मारेके समान भाकारवाले केतकी-पत्रको देखनेसे उनका हृदय मारेसे चोरे जाते एके समान विदीर्ण होता] // 8 // धनुमधुस्विनकरोऽपि भीमजा परं परागैस्तव धूनिहस्तयम् | प्रसूनापन्वा शरसात्करोति मामिति क्रुषाऽऽकश्यत तेन कैतकम् / / 81|| पारिति / केतक! प्रसनं धन्वा बनुयंस्पति प्रसनबन्ना पुपचापः / 'वासंज्ञा. पामि' स्वबहादेशः। मत एव पशुपो महनामकरन्देन स्विकमाईपाणिःसन् अत एवं परागैःरमोमिा धूलिहस्तपन् पुनः पुनः धूल्युदावितहस्तमात्मानं रुपन् अन्यथा भनंपनादिति भावः, तरकरोतेयन्ताक्टः पत्रादेशः। मविभीमनापरमतिमा दमयस्यासक्तं मां शरसात् पराधीनरोति, 'तपधीने ' इति सातिप्रत्ययः, अन्यथा सस्तापास मोकिं कुपोदिति भावः। इतीत्थं श्लोकायोतिरिति तेन रामा कवा केतकमाकश्यत अपराधोदाटने अघोप्यतेत्यर्थः // 8 // पुष्पपन्ना (कामदेव ) धनुषके मधुसे भाद्रास्त होकर तुम्हारे परार्मोसे हायको धूपित करता हुमा दमयन्तीमें भत्यासल मेरे मनको बाणों के अधीन कर रहा है, ऐसे क्रोबसे उस नळने उस केतकी पुष्प को निन्दा की। [पुष्पमय धनुष के मधुसे आर्द्रहस्त कामदेव यदि तुम्हारे परागोंसे हायको धूलियुक्त नहीं करता तो लक्ष्यभ्रष्ट होने मुझे बाणपादित नही कर सकता, भतएव मेरे काम-बाणसे पीड़ित होने तुम्ही मुख्य कारण हो ऐसा कोषसे करते हुए नग्ने केतकी-पुष्पकी जिन्ना की अनुषको बहुत समय तक पकड़े रहनेसे बर बनुरोका हाय पसीजने गता है, तब वह हायमें धूलि बगाकर उसे सूखा कर लेता है और वेसा करनेसे वह अक्ष्यका ठीक-ठीक वेव करता है ] // 81 //
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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