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________________ प्रथमः सर्गः। देख श्रद्धासामग्री तथा उन दोनों में किसी एकके मी नहीं रहनेसे सीता पपड़ायीं कि भष पितरोंको प्रादपिण्ड किस प्रकार दिया जाय ? उसे घबड़ायी हुई देखकर भाकाशवाणी करते हुए पितरोंने कहा कि 'हे वत्से ! श्राद्धसामग्री नहीं होने पर मी तुम मत घबड़ामो और बालूका पिण्ड बनाकर हम लोगोंका श्राम करो'। सीताने वैसा ही किया तथा अपने इस श्राद्ध कार्यमें वहां उपस्थित गौ, अग्नि, फल्गु नदी और केतकीको साक्षी बनाया / विधिवत बाला प्रादपिण्ड पाकर पितरोंके हाथ अन्ततिहो गये ता रामचन्दनी तथा रुक्ष्मणबी श्राद्धसामग्री लेकर भाये और सीताजीने पूर्वोक्त चारों साक्षियों के सामने बालूके पिण्डद्वारा पितरों की मालासे श्राद्ध करनेकी पात उनसे कहो, किन्तु उन चारों साक्षियों ने 'हमें कुछ मी मालूम नहीं है' कह दिया और पितरों ने पुनः आकाशवाणीकर सीताबोके दिये हुए श्राद्धपिण्डको स्वीकार करनेका वृत्तान्त कहकर रामचन्द्रबीको पुनः श्राद्ध करनेसे निषेध किया। तब सीताजीने-तुम पागे (मुख) मागसे अपवित्र हो तो, तुम सर्वमक्षी होवो, तुम निर्जल (अन्तर्जक) होवो तथा तुम शिवजीका प्रिय न रहो' ऐसा शाप क्रमशः उन गौ, अग्नि, फल्गुनदी तथा केतकी-पुष्पको दिया। कहा जाता है कि उसी समय से उस स्थानपर बालूके पिण्डसे ही पितरों के बाद करनेकी प्रथा चालू हुई। यह कथा शिवपुराणमें आयी है। वियोगभाजां हृदि कण्टकैः कटुर्निधीयसे कणिशरः स्मरेण यत् / ततो दुराकषतया तदन्तकृद्विगीयसे मन्मथदेहदाहिना / / 4 // अथ निमिः केतकोपालम्ममाह-वियोगस्यादि। केतक! यद्यस्मारवं स्मरेण वियोगमाजांहदि कण्टकैः निजतीचणावयवैः कटुरतीचणः केतकविशेषणस्यापि कर्णि. शरस्वम् / विशेषणविवच्या पुंल्लिनिर्देशः, किन्तूहेश्य विशेषणस्य विधेयविशेषणत्वं क्लिष्टम् / कर्णवत् कर्णि प्रतिलोमशल्यं तद्वान् शरः कर्णिशरः सनिधीयसे कण्टककोः केतकस्य कर्णिशरस्वरूपणाद्रपकाळारः / ततः कणिशरस्वादिवद् दुराकर्षतथा दुसद्वारतया तदन्तकृत्तेषां वियोगिनां मारकं मम्मथदेहदाहिना स्मरहरेण विगीयते विगपे / वेष्यवत् द्वेष्योपकरणमप्यसद्यमेव, तदपि हिनं चेत् किमु वक्तव्यमिति भावः। अत्रेश्वरकर्तृकस्य केतकीविगणस्य तद्तवियोगिहिंस्रताहेतुफरवोस्प्रेक्षणादेतूस्प्रेक्षा ग्यजकाप्रयोगादम्या, सा चोक्तरूपकोस्थापितेति सङ्करः॥ 79 // ___कामदेव काँटोसे क्रूर ( भयकर ) कर्णयुक्त वाणरूप तुमको वियोगियोंके हायमें चुभाता है, इस हारण से (अपवा-कृणंयुक्तबाण होनेसे, अथवा-उस वियोगि हृदयसे ) कसे निकाले राने योग्य होने से उन विरदियोको मारने वाले तुमको कामदेव-शरीरदाहक (शिवजी ) निन्दित ( त्यक्त) करते हैं-('इस प्रकार क्रोरसे नलने केतकी पुष्पकी निन्दा की' ऐसा ममिम ( 1 / 81) लोकसे सम्बन्ध करना चाहिये)। [ कामदेवके सहायक तुम्हारा स्याग करना कामदेवदाहक शिवजी के लिए उचित ही है ] // 79 // त्वदप्रसूचीसचिवः स कामिनोमनोभवः सीव्यति दुर्यशःपटौ।
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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