SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 311
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 282 नैषधमहाकाव्यम् / अपने छोटे भाई दानवशत्रु (विष्णु) के सावधान ( या जागरूक या योगक्षेमके लिये तस्पर रहनेपर, (पक्षान्तरमें-जागते रहनेपर) मुझे युद्धकी क्या बात (या चिन्ता) है ? विजयरूप चिह्नसे (अथवा-विजयसूचक शङ्खचक्र आदिसे) चिह्नित जिसके बादुमध्यको तकिया बनाकर निर्भय मैं सुखपूर्वक सोता हूँ। [ अन्य मी व्यक्ति रक्षकके जागते रहनेपर निर्भय हो सुखपूर्वक सोता है / आत्मीय-रक्षक विष्णु के जागरूक रहनेपर युद्धकी कोई चर्चा नहीं है, जिसे देखकर आप प्रसन्न होंगे] // 38 // विश्वरूपकलनामुपपन्नं तस्य जैमिनिमुनित्वमुदीये / / विग्रहं मखभुजामसहिष्णुर्व्यर्थतां मदशनि स निनाय / / 36 / / विश्वेति / तस्योपेन्द्रस्य विश्वरूपकलनात् सर्वार्थसाक्षात्करणात् , यद्वा एकत्र मरस्यफूर्मानन्तरूपधारणादन्यत्र विश्वार्थरूपणात् , विश्वरूपाणि सूत्राणि तस्प्रण. यनात् (हेतोः), जैमिनिमुनिस्षमुदीये उत्पन्नम् / इण गतौ कर्तरि लिट / उपपन्नं तपयुक्तमित्यर्थः / कुतः, स उपेन्द्रः, मखभुजां विग्रहं विरोधमन्यत्र शरीरम, असा हिष्णुर्मदशनि मम वज्रायुधम्, नन्वन्त्र 'वज्रहस्तः पुरन्दर' इत्यादिवाक्यजातं,ग्यर्थतां स्वायुधेनैव तस्कार्यकरणानिष्प्रयोजनस्वम्, अन्यत्र विग्रहवदेवतानिरासेन अर्थवाद. स्वाभिरभिधेयरवं च निनाय / अतो जैमिनिमुनिरवं युक्तमित्यर्थः। प्रकृताप्रकृतश्लेषः / / ___उस विष्णुके ('सर्व विष्णुमयं जगत्' इस वचनके अनुसार) विश्वरूपको स्वीकार करनेसे ( पक्षान्तरमें-जैमिनिके द्वारा 'विश्वरूप' नामक सूत्रग्रन्थ बनाने से सिद्ध जैमिनिमुनित्व उत्पन्न होता है, (विष्णु विश्वरूप हैं तथा जैमिनि मुनि विश्वमें हैं; अतः उनका जैमिनिमुनित्व सिद्ध होना संगत ही है, क्योंकि देवताओंका (असुरों के साथ ) युद्ध होना नहीं सहते हुए ( अपने सुदर्शन चक्रसे असुरोंका संहारकर युद्धको समाप्त करते हुए ) उस विष्णुने मेरे वज्र को व्यर्थ मना दिया है ( असुर-संहाररूप मेरे वज्रका काम वह विष्णु ही कर देते हैं, अतः मुझे वज्र उठाना ही नहीं पड़ता। पक्षान्तरमें-देवताओं के शरीरको नहीं सहनेवाले (जैमिनि मुनिके मतमें देवता शरीरधारी नहीं हैं ) उत्त जैमिनी मुनिने मेरे वज्रको मारोपितार्थक ( अथवा जैमिनि, सुमन्तु मादि 6 को वज्रधारी बतलाकर 'वज्रपाणि इन्द्र है' इस वचनसे सिद्ध मेरे वज्रको निष्फल अर्थात् असत्य ) कर दिया है / [ जैमिनि मुनि देवशरीरको नहीं मानते हैं, किन्तु मन्त्रमय देवताशरीर मानते हैं और इन्द्र के आयुध वज्रको भी अर्थवाद. मात्र मानते हैं। विशेष प्रपञ्च इस श्लोककी टोकामें या जैमिनि मुनिके रचित ग्रन्थ में ही देखना चाहिये, विस्तार-भयसे उसे यहाँ नहीं दिया जा रहा है ] // 39 // ईदृशानि सुनये विनयाब्धिस्तस्थिवान् स वचनान्युपहृत्य / प्रांशुनिःश्वसितपृष्ठचरी वाङ् नारदस्य निरियाय निरोजाः // 40 // ईशानीति / विनयाब्धिः स इन्द्रो मुनये ईशानि युद्धनिराशानि वचनानि
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy