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________________ षष्ठः सर्गः। 341 षे यदि / "ब्रुवः पञ्चानाम्" इत्यादिना सिपस्थादेशो ब्रुव आहश्च / “आहस्थ" इति हकारस्य थकारादेशः। तदा मघोनः पदावङघ्री। 'पदङघ्रिश्चरणोऽस्त्रियाम्' इत्यमरः / आलभसे हिनस्सि स्पृशसि वा / वज्रिणि इन्द्रे विषये अन्तरन्तरङ्गे परं श्रेष्ठं, गुणत्वेन गृह्यमाणमित्यर्थः / इमं तीव्र दुस्सहं मन्तुं निजाज्ञोबवनापराधम् / 'आगोऽपराधो मन्तुश्च' इत्यमरः / सतीव्रतैः पतिव्रतानियमैः मार्जितास्मि मार्जिज्यामि / मृजेलुटि मिप / पतिब्रताधर्मज्ञः सर्वज्ञो भगवान् मघवा मामस्मादपराधात्त्रास्यतीत्यर्थः // 11 // यदि तुम मुझसे इस विषय (इन्द्रको बरण करने) को फिर कहती हो तो इन्द्र के चरणोंका शपथ है (या इन्द्रके चरणोंकी हिंसा करती हो)। वज्रधारी इन्द्रसे हृदय में अत्यन्त तीव्र इस ( इन्द्रकी आज्ञाका अपालनरूप ) अपराधका तो सतीब्रतोंसे मैं यथावत् मार्जन करती हूँ। [इन्द्राशाका निषेध करना मुझे हृदय में बहुत तीव्र अपराध प्रतीत हो रहा है, परन्तु सतीव्रतसे विवश होकर मेरा ऐसा करना उचित जानकर इन्द्र भगवान् क्षमा करेंगे। अथवा-वरम् यथावत् अच्छी तरह हृदयमें स्थित इस अपराधको...... / अथवा अन्तःकरणमें नलको वर ( पति ) रूपमें रखनेके ( इन्द्र-मतानुसार ) तीव्र अपराधको / अथवासती होकर भी इन्द्ररूप परपुरुषके अनुराग-विषयक सन्देशको सननेसे 'तीव्र अपराधको हृदयस्थ वररूप ( लोकपालांश होनेसे ) इन्द्रमें सतीव्रतोंसे मार्जित करती हूँ, अर्थात् मैंने इन्द्रके सन्देशको केवल देवराजके गौरवकी दृष्टिसे सुना है, अनुरागवश नहीं, इसमें मेरा दृढ सतीव्रत ही प्रमाण है ] // 110 // इत्थ पुनवागवकाशनाशान्महेन्द्रदूत्यामवयातवत्याम् / विवेश लाल हृदयं नलस्य जीवः पुनः क्षीबमिव प्रबोधः / / 111 / / इत्थमिति / इत्थमुक्तप्रकारेण पुनर्वागवकाशनाशात् भूयोवचनावकाशनिवृत्तेः। इन्द्रदूत्यामवयातवत्यां गतायां नलस्य जीवोऽन्तरात्मा लोलं चलाचलं हृदयं क्षीवं मत्तम् / 'मत्ते शौण्डोत्कटक्षीबा' इत्यमरः / 'क्षीबृ मद' इति धातोः कर्तरि क्तः। 'अनुपसर्गात् फुल्लक्षीबकृशोल्लाघा' इति निपातनात्साधुः / प्रबोधो विवेक इव पुन• विवेश पुनर्जात इवाभूत् / तदा विशश्वास उच्छश्वास चेत्यर्थः // 111 // इस प्रकार (इलो 110 ) फिर कहने के अवसरका सर्वथा नाश हो जानेसे इन्द्र-दूतीके चले जानेपर उन्मत्तमें ज्ञान के समान नलके चञ्चल हृदयमें जीवने पुनः प्रवेश किया। [ इन्द्रदूतीके सन्देश तथा दमयन्ती-सखियों के द्वारा उसका समर्थन सुनकर नलका निजीवप्राय हृदय चञ्चल हो रहा था कि 'मुझे न तो प्रिया दमयन्तीका ही लाभ हुआ और न तो दूत-कर्म के श्रेय का हो' (दे० श्लो० 89), अतः यमादिके दूतोके समान इन्द्रदूतीको मी मना करने पर नलके जानमें जान आ गया कि अब मैं दूतकर्म कर यशोलाम करूँगा या प्रियपत्नीके रूपमें दमयन्तीको ही प्राप्त करूँगा। उन्मत्त व्यक्तिका भी हृदय चञ्चल रहनेपर ज्ञानशून्य रहता है तथा ज्ञान आने पर उसको शान्ति मिलती है ] // 111 //
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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