________________ अहमः सर्गः। मन्विन्ऽपि समागते तदभिलाषेनोक्तदोषावकाशः कुत इत्याशय चित्तरः तीनां चणिकरवास तथा प्रदेयमित्याह-पुण्य इति / मुनेर्यतेरपि किमुताम्यस्येति भावः / कस्य मनः पुण्ये स्यात् पुण्य एवं प्रमाणं न कस्यापीत्यर्थः / कुतः, यस्मा. दघे पापेऽपि धावदुलं प्रवर्तमानं तम्मन एव प्रमाणं निश्चायकमास्ते / किन्तु हप्यस्करण उद्यरकपः परमेश्वर एव तधिम्ति पापचिन्तकं भक्तस्य विसं रुद्धि निवारयति / तस्मात् विधिविलसितमेवैतदिन्द्रचष्टितमिति भावः // 17 // किसी भी मुनिका चित्त पुण्यमें ( सत्कार्यमात्रमें ही) निश्चित रहता है ? अर्थात् किसी का भी नहीं, क्योंकि पाप ( कर्म ) में भी दौड़ता है (विग विचार किये प्रवृत्त होना चाहता है ), करुणाकर परमेश्वर या ब्रह्मा भक्तके उस (पाप या परमेश्वर ) की चिन्ता करने वाले चित्तको रोकते हैं अर्थात् पापकर्मसे बचा लेते हैं। [ अत एव विषय निःस्पृह मुनियों के चित्तकी प्रवृत्ति भी सहसा पापकी ओर होती है परन्तु वे भगवत्कृपासे पारसे बच जाते हैं तो विषयोन्मुख दमयन्ती का चित्त नलके निश्चय नहीं रहनेपर भी तद्रुप नलमें अनुरक्त होने पर मो भगवत्कृपासे वास्तविक नलमें अनुरक्त हुआ। इस कारण उसके पातिव्रत्य धर्मको लेशमात्र भी क्षति नहीं पहुंची ] // 17 // सालीकदृष्टे मदनोन्मविष्णुर्यथाप शाजीनतया न मौनम् / तथैव तथ्येऽपि नले न लेभे मुग्धेषु कः सत्यमृषाविवेकः / / 18 / / सम्प्रति धाष्टदोषं परिहरति-सेति / मदनोन्मविष्णुः उम्मदशीला "अलकृष" इत्यादिना इष्णुच / सा भैमी यथा अलीकदृष्टे मिथ्यारष्टे शालीनतया अष्टतया। "शालीनकौपीने अष्टाकार्ययोः" इति निपातः / मौनं नाप तदेव तथ्येऽपि नले न लेभे / एतत्सत्येऽनुचितमित्याशक्य अर्थान्तरन्यासेन परिहरति / मुग्धेषुमदनो। न्मादेषु सत्यमृषा सत्यासत्ययोविवेको विवेचना नास्तीत्यर्थः / अत एव न धाट. दोषोऽपीति भावः // 18 // कामोन्मत्ता वह दमयन्ती जिस प्रकार असत्यदृष्ट ( स्वप्न-भ्रमादिमें देखे गये ) नलमें भी अधृष्टतासे मौन नहीं रही, उसी प्रकार (अन्तःपुरमें दूतरूपसे आनेसे) सत्य दृष्ट ( वास्तविक देखे गये) नल में भी मौन नहीं रही अर्थात् नलको वहाँ देखकर बोली। [ठीक ही है--मोहित व्यक्तियों में वास्तविक या अवास्तविक का कौन विचार है अर्थात् कोई नहीं ( पाठा०- 'अत्यन्तसलज्ज' शब्द दमयन्तीका विशेषण है। सिदान्तवागीश महोदयने जो 'शालीन' शब्दका निर्लज्ज या अतिप्रगल्भ' अर्थ किया है, वह 'स्यादधृष्टे तु शालीनः' ( अमर 3 / 1 / 26 ), 'अथाधृष्टे शालीन शारदौ' ( हैम 3097 ), 'अधृष्टौ च प्रोक्तौ शालीन. शारदौ' (दला०-२१२२०); के वचनोंसे विरुद्ध होनेके कारण चिन्त्य है ] // 18 // 1. "शालीनतमा" इति पाठान्तरम् /